Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 4
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 136
________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( १३५ से वह पर्याय अपने स्वामी के साथ एकत्व को प्राप्त हो जाती है लेकिन परज्ञेयों में परपना होने से अतन्मयतापूर्वक उनका भी जानना होता रहता है; अत: उनके प्रति सहज ही उदासीनता - मध्यस्थता वर्तती रहती है। ऐसा ज्ञानतत्त्व का सहज स्वाभाविक परिणमन है, वैसा ही मेरा भी वह बने रहना चाहिए । विकारी पर्यायों से भिन्नता करने का उपाय प्रश्न आत्मा की स्वयं की पर्याय में उत्पन्न होने वाली पर्यायों संबंधी ज्ञेयाकारों का ज्ञान आत्मा को होता है उनसे आत्मा अलग नहीं हो सकता । वे तो आत्मा के स्व क्षेत्र में ही उत्पन्न एवं विद्यमान होते हैं; अतः उनसे भिन्नता कैसे समझी जाने ? - उत्तर यह बात सत्य है कि आत्मा में उत्पन्न होने वाले विकारी भावों के द्रव्य, क्षेत्र, काल तीनों तो एक ही हैं लेकिन भावों में भिन्नता अवश्य है । आत्मा को वेदन तो मात्र भावों का ही होता है द्रव्य, क्षेत्र, काल का नहीं होता । दुःख का वेदन भी भाव है और उसका अभाव रूप सुख का वेदन भी भाव है । आत्मा का प्रयोजन तो सुखरूपी भाव प्राप्त करने का ही है। इसलिए भाव विपरीतता होने से, पर्यायगतभाव मेरे स्व कैसे हो सकते हैं? मेरे स्वभाव से मेल खाने वाला ही मेरा स्व हो सकता है। लेकिन मैं तो नित्य, अविनाशी, ध्रुवस्वरूप हूँ और पर्याय तो इससे विपरीत अनित्य, क्षण-क्षण में नाशवान, उत्पाद-व्यय स्वभावी है । इतना ही नहीं विकारी पर्याय तो मेरे स्वभाव से विपरीत स्वादवाली भी है। अतः दोनों में जबर्दस्त भाव विपरीतता होने से ऐसी पर्याय मेरा स्व नहीं हो सकती। इन्हीं कारणों से मैं तो पर्यायों को स्व के रूप में स्वीकार करने में असमर्थ हूँ, इतना ही नहीं, उनके साथ मेरा संबंध तो परद्रव्य के जैसा ही परपने का संबंध है। वे मेरे लिए परद्रव्य के समान पर ज्ञेय हैं। इस अपेक्षा दोनों में कोई अन्तर नहीं है। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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