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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१२९
इसप्रकार केवली भगवान का ज्ञान (लोकालोक को जानते हुए भी) स्व को तन्मयतापूर्वक जानता है और पर को अतन्मयतापूर्वक जानता है। तथा ज्ञप्तिपरिवर्तन का अभाव होने से वे परम अनाकुल आनन्द का अनुभव, सादि अनन्तकाल तक करते रहते हैं। नियमसार की गाथा १६६ के साथ श्लोक २८२ के अर्थ के टिप्पणी के अंत में स्पष्ट किया है कि
__ “केवली भगवान जिसप्रकार स्व को तद्प होकर निजसुख के संवेदन सहित जानते देखते हैं; उसीप्रकार लोकालोक को (पर को) तद्प होकर परसुख दुःखादि के संवेदन सहित नहीं जानते-देखते, परन्तु पर से बिल्कुल भिन्न रहकर, पर के सुख दुःखादि का संवेदन किये बिना जानते-देखते हैं, इतना ही सूचित करने के लिए उसे व्यवहार कहा है।"
उपरोक्त समस्त चर्चा का निष्कर्ष यह है कि अगर हमारा ज्ञान भी अरहंत के समान, पर से नि:स्पृह (निरपेक्ष) होकर, स्व में अपनेपन की श्रद्धापूर्वक और अपने में एकाग्र होकर परिणमन करे तो हमारा भी आत्मा, परमशान्ति का अनुभव करता हुआ पूर्णदशा (अरहंत दशा) को प्राप्त कर सकता है।
चर्चा का सारांश द्रव्यों की भीड़भाड़ में खोई हुई निज आत्मा को पहिचानकर कैसे भिन्न करना यह भी समझा। तदनन्तर निज आत्मतत्त्व भी नवतत्त्वों के बीच में इसप्रकार छुपा हुआ है कि जब भी पहिचानने की चेष्टा की जावे, दिखाई ही नहीं देता, मात्र पर्यायगत नवतत्त्वरूप ही दीखते हैं। अत: नवतत्त्वों में जीवतत्त्व को, अन्य सबसे भिन्न समझने के लिए जीवतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को समझा एवं अन्य पदार्थों के स्वरूप को जीवतत्त्व से भिन्न समझने के लिए समझा। अपना स्वरूप समझ लेने पर भी उसमें अहंपना (अपनापन) स्थापित करने के लिए, भेदज्ञान की पद्धति पर भी संक्षेप में चर्चा की। स्व में ऐसा क्या आकर्षण है कि उस ही रूप अपने को माना जावे? ऐसी शंका को निर्मूल करने के लिए एवं स्व में अहंपना स्थापन करने के लिए, आत्मा के ज्ञानस्वभाव की एवं सुखस्वभाव की
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