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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
ज्ञेय को जानने वाला ज्ञान, ज्ञेय निरपेक्ष कैसे ?
जो ज्ञान ज्ञेय को जानते हुए भी ज्ञेय से सम्बन्ध नहीं जोड़ता, वह ज्ञान उससे निरपेक्ष ही तो रहता है; क्योंकि इसप्रकार के वर्तने में राग का उत्पादन नहीं होता । ज्ञान, ज्ञेय को अगर सम्बन्धपूर्वक जानता है तो नियम से राग उत्पन्न होगा ? केवली भगवान अपने आत्मस्वभाव (ज्ञायकस्वभाव) में एकत्वपूर्वक लीन वर्तते हुए अनन्तज्ञेयों को जानते हुए
उन ज्ञेयों के प्रति निरपेक्ष बने रहते हैं। इससे ज्ञान का स्वभाव स्पष्ट समझ में आ जाता है कि आत्मस्थज्ञान, ज्ञेयों को जानते हुए भी ज्ञेय निरपेक्ष वर्तता है । प्रवचनसार गाथा ४२ के भावार्थ में कहा है कि " निर्विकार सहज आनन्द में लीन रहकर सहज रूप से जानते रहना वही ज्ञान का स्वरूप है; ज्ञेय पदार्थों में रुकना उनके सन्मुखवृत्ति होना वह ज्ञान का स्वरूप नहीं है । ”
इसप्रकार स्पष्ट है कि जो ज्ञान अपने स्वामी ज्ञायकस्वभाव के साथ एकत्वपूर्वक तन्मय होकर परिणमन करे, वह ज्ञान ज्ञेयों से अत्यन्त निरपेक्ष रहते हुए ही परिणमन करता है ।
प्रश्न ऐसी निरपेक्षता तो क्षायिकज्ञान (केवलज्ञान) में ही संभव है हम छद्मस्थों का क्षायोपशमिक ज्ञान ज्ञेय निरपेक्ष कैसे वर्त सकता है ?
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उत्तर - ज्ञान का स्वभाव तो ज्ञेयनिरपेक्ष वर्तना ही है, क्षायिकपना अथवा क्षायोपशमिकपना दोनों ही दशाओं में स्वभाव तो वैसा का वैसा अपरिवर्तित ही रहता है । अत: सिद्ध है कि ज्ञान का स्वभाव तो ज्ञेय निरपेक्ष वर्तना ही है ।
निरपेक्ष ज्ञान भी राग का उत्पादक क्यों दिखता है ?
प्रश्न ज्ञान, ज्ञेय निरपेक्ष क्यों नहीं वर्तता ?
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जब ज्ञान का स्वभाव ज्ञेय निरपेक्ष वर्तना ही है तो हमारा
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उत्तर - उक्त प्रकार से मोक्षमार्ग एवं संसारमार्ग दोनों के कारणों
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