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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
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सकता है। क्योंकि उनकी सत्ता अलग-अलग है और वह प्रयोजनभूत भी है। क्योंकि अज्ञानी को अनादिकाल से अपने से अन्य द्रव्यों में अर्थात् अपने शरीर तथा शरीर से सम्बन्धित अन्य पदार्थों में एकत्व बुद्धि वर्त रही है, अपने को उनका कर्ता-भोक्ता मानता चला आ रहा है । ऐसी एकत्व बुद्धि के अभाव करने का मात्र एक ही उपाय है कि दोनों द्रव्यों के बीच का भेद का ज्ञान कराकर उनके प्रति अकर्त्ता - अभोक्तापने की मान्यता उत्पन्न कराना । अत: उपरोक्त श्रद्धा कराने का उद्देश्य यह है ।
उपरोक्त प्रकार से भेद - ज्ञान द्वारा जब अपने आत्मद्रव्य का विश्लेषण करता है; तब अपने अन्दर एक ओर तो नित्य- स्थाई - धुवभाव ज्ञान में आता है और दूसरी ओर, अरथाई- अनित्य-पर्याय ज्ञान में आती है। दोनों की सत्ता भी एक है तथा प्रदेश भी भिन्न नहीं हैं । अतः ध्रुवभाव और पर्याय भाव के बीच भेद-ज्ञान समझने की आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है । यह स्थिति होने पर, सात तत्त्वों के माध्यम से ध्रुवभाव एवं पर्याय भाव में भेद ज्ञान समझाया जाता है। जिनमें त्रिकाली ज्ञायक-अकर्ता स्वभावी एक ध्रुवभाव तो जीवतत्त्व है बाकी रहे छह तत्त्व वे सब पर्याय भाव ही हैं। इसप्रकार सातों तत्त्वों के स्वरूप को विस्तार से समझना आवश्यक हो जाता है। उनमें सर्वप्रथम जीवतत्त्व का सभी पर्याय तत्त्वों से भेदज्ञान कराना आवश्यक है। लेकिन उनमें से प्रथम जीवतत्त्व से विकारी पर्यायों का भेद-ज्ञान, अति आवश्यक भी है संभव भी है और प्रयोजनभूत भी है।
सातों तत्त्वों में जीवतत्त्व का अजीवतत्त्व से सर्वप्रथम भेद-ज्ञान कराना आवश्यक समझकर इस भाग ४ का मुख्य उद्देश्य है । इसलिए आगामी भाग ५ में विकारी पर्यायों से भेद - ज्ञान कराने का विषय विस्तार से आवेगा । इसी भाग ४ में भी ज्ञानस्वभाव प्रकरण के अन्तर्गत "विकारी पर्यायों से भिन्नता करने का उपाय" शीर्षक में भी इसका विवेचन संक्षेप से आया है, वहाँ से समझ लेवें ।
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