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( सुखी होने का उपाय भाग-४ ही कार्य करता है और एक समय एक ही इन्द्रिय के माध्यम से ज्ञान करेगा? उसी समय बाकी रही पाँच इन्द्रियों के विषय प्राप्त करने सम्बन्धी आकुलता की पूर्ति तो किसी भी प्रकार से हो ही नहीं सकेगी। लेकिन अज्ञानी तो ज्ञेयों में से एकसाथ ही सम्पूर्ण सुख प्राप्त कर लेना चाहता है। अत: इसकी आकुलताओं का अन्त नहीं होता। फिर भी अपनी विपरीत मान्यता के कारण, उन आकुलताओं को आकुलता नहीं मानकर सुख की कल्पना करता रहता है। ऐसी विपरीत मान्यता को सच्ची समझ द्वारा स्वयं ही बदल सकता है ।
प्रवचनसार ग्रन्थ की गाथा ७५-७६ की टीका में निम्नप्रकार कहा
है
"ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि । __ इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता ॥ ७५ ।।
टीका - जिनके तृष्णा उदित होती है ऐसे देव पर्यंत समस्त 'संसारी, तृष्णा दुःख का बीज होने से पुण्यजनित तृष्णाओं के द्वारा भी अत्यन्त दु:खी होते हुए मृगतृष्णा में से जल की भाँति विषयों में से सुख चाहते हैं और उस दुःसंताप के वेग को सहन न कर सकने से विषयों को तब तक भोगते हैं, जब तक कि विनाश को (मरण को) प्राप्त नहीं होते। जैसे जोंक (गोंच) तृष्णा जिसका बीज है ऐरो विषय को प्राप्त होती हुई दुःखांकुर के क्रमश: आक्रान्त होने से दूषित रक्त को चाहती है और उसी को भोगती हुई मरणपर्यंत क्लेश को पाती है, उसीप्रकार यह पुण्यशाली जीव भी, पापशाली जीवों की भाँति, तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विषय प्राप्त दुःखांकुरों के द्वारा क्रमश: आक्रान्त होने से विषयों को चाहते हुए और उन्हीं को भोगते हुए विनाशपर्यंत (मरणपर्यंत) क्लेश पाते हैं।"
"सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ।। ७६ ।। टीका - परसम्बन्धयुक्त होने से, बाधासहित होने से, विच्छिन्न
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