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( सुखी होने का उपाय भाग-४ इसका समर्थन प्रवचनसार गाथा २९ की टीका में निम्नप्रकार किया
“जिसप्रकार चक्षु रूपी द्रव्यों को स्वप्रदेशों के द्वारा अस्पर्श करता हुआ अप्रविष्ट रहकर (जानता-देखता है) तथा ज्ञेय आकारों को आत्मसात् (निजरूप) करता हुआ अप्रविष्ट न रहकर जानता-देखता है, उसीप्रकार
आत्मा भी इन्द्रियातीतता के कारण प्राप्यकारिता की विचारगोचरता से दूर होता हुआ ज्ञेयभूत समस्त वस्तुओं को स्वप्रदेशों से अस्पर्श करता है, इसलिए अप्रविष्ट रहकर जानता-देखता है तथा शक्तिवैचित्र्य के कारण वस्तु में वर्तते समस्त ज्ञेयाकारों को मानों मूल में से उखाड़कर ग्रास कर लेने से अप्रविष्ट न रहकर जानता-देखता है । इसप्रकार इस विचित्र शक्ति वाले आत्मा के पदार्थों में अप्रवेश की भांति प्रवेश भी सिद्ध होता है।"
आत्मा की उपरोक्त शक्ति सामर्थ्य यह सिद्ध करती है कि आत्मा की ज्ञान की पर्याय, ज्ञेय की अपेक्षा रखे बिना स्वभाव से ही, अपने ज्ञान पर्याय के परिणमन को जानती है।
वास्तव में तो ज्ञान की पर्याय अपने उत्पादकाल में उत्पन्न होते समय स्वयं इस योग्यतापूर्वक उत्पन्न होती है कि वह पर्याय अपने ज्ञान में किस ज्ञेय का ज्ञान करेगी। ज्ञान की पर्याय का कार्य है जानना । उस • जानने के कार्य का क्षणिक उपादान कारण तो उस समय की पर्यायगत योग्यता है और निमित्त है, ज्ञेयवस्तु । उपादानरूप ज्ञान की पर्याय की योग्यता का परिणमन ज्ञेयवस्तु के आकाररूप होना है अर्थात् ज्ञान की पर्याय का ज्ञेयाकाररूप परिणमना है। ज्ञेयवस्तु तो ज्ञान से अत्यन्त दूर रहते हुये, उस परिणमन में किंचितमात्र भी सहयोग अथवा असहयोग करती ही नहीं, वरन् उसको तो यह पता भी नहीं होता कि कौन उसको जान रहा है अर्थात् कौन उसके आकाररूप परिणमन कर रहा है। दोनों के अपने-अपने स्वतंत्र परिणमन हैं। दोनों ही अपने-अपने उपादान से अपने में परिणमन कर रहे हैं। लेकिन ज्ञान की पर्याय किसके आकार हुई है, यह बतलाने के लिए ज्ञान को ज्ञेयाकार कहकर, ज्ञेय का ज्ञान के
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