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( सुखी होने का उपाय भाग-४ में ज्ञेय का सहयोग तो दूर, अंशमात्र अपेक्षा भी नहीं हैं। जाननक्रिया का ज्ञेय कौन हो? इसका नियामक भी वह जाननक्रिया ही है। ज्ञेय का तो उनमें किंचितमात्र भी हस्तक्षेप नहीं है और न हो ही सकता है, क्योंकि दोनों द्रव्य भिन्न हैं। अत: ज्ञान तो ज्ञेय से अत्यन्त भिन्न रहते हुए पर निरपेक्ष ही वर्तता है।
परीक्षामुख पंचम परिच्छेद के सूत्र १ में सम्यग्ज्ञान का फल कहा।
अज्ञान निवृत्तिानोपादानोपेक्षाश्च फलम्।"
अर्थ - “प्रमाण (सम्यग्ज्ञान) का फल अज्ञान निवृत्ति तथा त्याग, ग्रहण एवं उपेक्षा है।"
तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन के साथ उत्पन्न हुआ ज्ञान, ज्ञेयों को जानते समय ही उनसे उपेक्षित रूप ही वर्तता है । प्रवचनसार गाथा ४२ के भावार्थ में भी कहा है कि - __“ज्ञान का स्वरूप है कि सहजरूप से जानते रहना, ज्ञेयों में रुकना अथवा उनके सन्मुखवृत्ति होना ज्ञान का स्वरूप नहीं है।"
___ अन्य दृष्टिकोण से भी विचार करें तो स्पष्ट होगा कि ज्ञान की जाननक्रिया को, पर अर्थात् ज्ञेयों की कोई अपेक्षा नहीं है। यथा आत्मा की जाननक्रिया का कार्यक्षेत्र तो आत्मा ही है तथा स्वामी भी आत्मा ही है । अत: जाननक्रिया का विषय भी स्व ही होना चाहिये। पर्याय अपने द्रव्य को छोड़कर बाहर तो जा नहीं सकती, अत: जानेगी तो अपने को ही तो जानेगी और उस ज्ञान पर्याय में स्वसम्बन्धी ज्ञेयाकार तथा परसम्बन्धी ज्ञेयाकार एक साथ ही जानने के लिए उपलब्ध हैं, अत: जानने के लिए उसको ज्ञेय के सन्मुख क्यों होना पड़ेगा? और न ज्ञेय को भी स्वस्थान छोड़कर ज्ञान के सन्मुख आना पड़ेगा? फलत: ज्ञेयकृत पराधीनता का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता।
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