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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (११३
प्रश्न - ज्ञान पर्याय को उन ज्ञेयाकारों रूप परिणमित कराने वाला कौन है? ज्ञेयाकार शब्द से ही ऐसा लगता है कि ज्ञेय के बिना ज्ञेय के आकार ज्ञान का परिणमन कैसे हो सकेगा? अत: ज्ञेयाकार होने में तो ज्ञान को ज्ञेय की पराधीनता है, ऐसा लगता है?
उत्तर - ऐसा कदापि संभव नहीं है । कारण किसी द्रव्य की कोई भी पर्याय किसी अन्य के अधीन हो ही नहीं सकती। क्योंकि हर एक द्रव्य “उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत्” है हर एक द्रव्य अपनी-अपनी पर्याय का उत्पादक है ऐसी स्थिति में उस ज्ञान की पर्याय को ज्ञेयाकाररूप कराने वाला अन्य कोई, कैसे हो सकता है?
उपरोक्त विषय पर डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल ने अपनी पुस्तक क्रमबद्धपर्याय के पृष्ठ ५१ से ५३ तक सांगोपांग चर्चा की है। वह निम्नप्रकार है - ___“ज्ञान की प्रत्येक पर्याय स्वकार्य करने में परमुखापेक्षी नहीं है। वह अपने में परिपूर्ण है, स्वकार्य करने में पूर्ण सक्षम है, पूर्ण सुयोग्य है। उसकी योग्यता में उसका ज्ञेय भी निश्चित है। ज्ञान की जिस पर्याय में जिस ज्ञेय को जानने की योग्यता है, वह पर्याय उसी ज्ञेय को अपना विषय बनायेगी, उसमें किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं चल सकता।
यह एक ध्रुवसत्य है कि ज्ञेय के अनुसार ज्ञान नहीं होता, अपितु ज्ञान के अनुसार ज्ञेय जाना जाता है; अन्यथा ऐसा क्यों होता कि जो ज्ञेय सामने है उसका तो ज्ञान नहीं होता और जो ज्ञेय सामने नहीं हैं क्षेत्र, काल, से दूर हैं, उसका ज्ञान होता दिखाई देता है, नव विवाहित आफीसर को सामने बैठा क्लर्क दिखाई नहीं देता, अपितु आफिस से दूर घर में या पीहर में बैठी हुई पत्नी दिखाई देती है।
इसीप्रकार का एक श्लोक प्रमेयरत्नमाला में आता है - 'पिहिते कारागारे तमसि च सूचीमुखाग्रदुर्भेदै। मयि च निमीलितनयने तथापि कान्ताननं व्यक्तम्॥
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