________________
यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
( ८१
और वही आत्मा का यथार्थ सुख है । समस्त द्वादशांग एकमात्र आत्मा में वीतरागता उत्पन्न कैसे हो ? उस ही मार्ग को बतलाती है, अत: इस विषय पर चर्चा आगे की जा रही है।
अनाकुलता कहाँ है ?
उपरोक्त प्रश्न को अपने अनुभव के आधार पर हमको हल करना चाहिये; यह विषय गम्भीरतापूर्वक विचार करने योग्य है । मैं आत्मा हूँ मेरे अस्तित्व का अभाव कभी नहीं होता यह तो निर्विवाद है लेकिन मेरे में उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख तो आते हैं और चले जाते हैं अर्थात् बदलते रहते हैं । इनके बदलते रहने पर भी मैं तो वैसा का वैसा ही स्थाई बना रहता हूँ। मेरा स्वभाव वही हो सकता है, जो मेरे साथ स्थाई रह सके । उपरोक्त आकुलता - निराकुलता में से कौनसा भाव मेरे साथ स्थाई रहता है और आत्मा किसको बनाये रखना चाहती है; यह खोजना चाहिये ?
हमको अनुभव में है कि कोई भी आकुलता को रखना नहीं चाहता, वरन् अनाकुलता को ही बनाये रखना चाहता है; चेष्टा भी करता है कि सुख का अभाव होकर दुःख उत्पन्न ही नहीं होवे । कदाचित् किसी कारण से आकुलता उत्पन्न भी हो जावे तो उसको शीघ्यतिशीघ्र समाप्त कर देने की चेष्टा करता है। अतः निश्चय होता है कि जिसको छोड़ने की भावना हो, वह स्वभाव नहीं हो सकता, अपने स्वभाव को कौन छोड़ना चाहेगा? आकुलता तो क्षणिक उत्पन्न होने वाला विभावभाव है । जैसे पानी का स्वभाव तो ठण्डा है वह अपने ठण्डे स्वभाव में अनादिकाल से था और अनन्तकाल तक भी बना रहेगा। पानी गरम हो भी जावे तो वह ज्यादा काल गरम रह ही नहीं सकेगा; क्योंकि वह उसका स्वभाव नहीं है । इसीप्रकार आत्मा तो यथार्थतः अनाकुल स्वभावी ही है। अगर किसी कारणवश पर्याय में आकुलता उत्पन्न हो भी जावे तो वह स्वत: ही ज्यादा काल आत्मा में ठहर नहीं सकती, बिना प्रयास के भी स्वतः शान्त हो जाती है। · क्योंकि आकुलता आत्मा का स्वभाव नहीं है। इसप्रकार यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org