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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
( ९७
" निर्विकार सहज आनन्द में लीन रहकर सहजरूप से जानते रहना वही ज्ञान का स्वरूप है: ज्ञेय पदार्थों में रुकना, उनके सन्मुख वृत्ति होना, वह ज्ञान का स्वरूप नहीं है ।" ( यहाँ ज्ञान शब्द गुण के अर्थ में है ) ज्ञानगुण की पर्याय स्व को जाने अथवा पर को?
प्रश्न
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समाधान
जब ज्ञान का स्वभाव ही स्व-पर को जानने का है तो वह किसको नहीं जाने ? वह तो जितना भी जो कुछ भी जानने योग्य हो, एक समय में ही सबको एक साथ जान लेवे - ऐसा उसका स्वभाव है ' ताकत है' सामर्थ्य है । प्रवचनसार गाथा ३६ की टीका में भी निम्नप्रकार कहा है—
“ज्ञानरूप से स्वयं परिणमित होकर स्वतंत्रतया जानता है इसलिए जीवद्रव्य ही ज्ञान है, क्योंकि अन्य द्रव्य इसप्रकार परिणमित होने तथा जानने में असमर्थ हैं और ज्ञेय, वर्तचुकी, वर्तरही और वर्तने वाली ऐसी विचित्र पर्यायों की परम्परा के प्रकार से त्रिविध कालकोटि को स्पर्श करता होने से अनादि अनन्त ऐसा द्रव्य है। (आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञेय समस्त द्रव्य है) वह ज्ञेयभूत द्रव्य आत्मा और पर (स्व और पर) ऐसे दो भेद से दो प्रकार का है। ज्ञान स्वपर ज्ञायक है, इसलिए ज्ञेय की ऐसी द्विविधता मानी जाती है।”
यही कारण है कि केवली भगवान के ज्ञान की पर्याय, सारे लोक में (स्व अथवा पर) जितने भी ज्ञेय हैं, सबको एक समय में ही एकसाथ जान लेती है । भगवान के ज्ञान की यह प्रगटता ही, ज्ञान की सामर्थ्य का प्रमाण है। विश्व के समस्त द्रव्यों में, प्रमेयत्व नाम का (ज्ञान में ज्ञेय के रूप में जानने में आ सके ऐसा ) सामान्य गुण विद्यमान है । इसप्रकार ज्ञान में जानने की शक्ति और ज्ञेयों में प्रमेयत्व (ज्ञेयत्व) शक्ति, निरन्तर त्रिकाल वर्त रही है। अतः समस्त द्रव्य ज्ञान के विषय बनना ही चाहिए। क्योंकि स्वभाव उस ही को कहा जाता है, जो अमर्यादित हो । अतः ज्ञानस्वभाव का जब पूर्ण विकास हो तो उसमें मर्यादा कौन कर सकेगा ? भगवान
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