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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
( १०३
" आत्मा ज्ञान और ज्ञान आत्मा है ऐसा जान; इसमें संदेह नहीं है । इसलिए ज्ञान तथा दर्शन स्व- परप्रकाशक हैं ॥ १७९ ॥”
" आत्मा को ज्ञानदर्शनरूप जान और ज्ञानदर्शन को आत्मा जान । स्व और पर ऐसे तत्त्वों को (समस्त पदार्थों को) आत्मा स्पष्टरूप से प्रकाशित करता है ॥ २८६ ॥”
आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रवचनसार गाथा ३६ की टीका में भी इसी विषय का समर्थन किया है
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“ ( आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञेय समस्त द्रव्य हैं) वह ज्ञेयभूतद्रव्य आत्मा और पर (स्व और पर) ऐसे दो भेद से दो प्रकार का है स्वपरज्ञायक है, इसलिए ज्ञेय की ऐसी द्विविधता मानी जाती है । "
। ज्ञान
इसप्रकार सभी प्रकार से यह सिद्ध होता है कि आत्मा स्व को - जानते हुए ही पर को भी जानता है, मात्र पर को ही नहीं जानता ।
अन्य अपेक्षा से भी विचार करें तो ज्ञान की पर्याय का स्वामी ज्ञानगुण का धारक द्रव्य है और वह पर्याय अपने स्वामी को ही न जाने ऐसा कैसे संभव हो सकता है? जबकि उस पर्याय का स्वभाव ही स्व-पर को जानने का है, वह अपने को ही न जाने ? यह कैसी अटपटी कल्पना है। ज्ञान की पर्याय आत्मा के असंख्य प्रदेशों में व्याप्त है, उत्पाद स्थान भी उसके असंख्य प्रदेश ही हैं, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चारों उसका स्वयं का आत्मा ही है, वह पर्याय स्वयं अपने द्रव्य में तन्मय होती हुई परिणमती है फिर भी वह अपने आप को न जाने ऐसी कल्पना तो वास्तविकता से अत्यन्त विपरीत एवं आधारहीन है ।
यथार्थ स्थिति तो यह है कि आत्मा के अतिरिक्त जितने भी ज्ञेय हैं; उनके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चारों ही इस आत्मा से अत्यन्त भिन्न हैं । यह ज्ञान की पर्याय उन तक तो पहुँच ही नहीं सकती । भिन्न प्रदेश होने . से मिल भी नहीं हो सकती । अतः शंका तो ऐसी होना चाहिए कि परज्ञेयों को वह कैसे जान सकेगी ? स्वयं अपने आपको जानने में तो शंका को स्थान ही नहीं रहता ।
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