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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
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और प्रत्येक आत्मा स्वभाव से केवली भगवान जैसा ही होने से यह सिद्ध हुआ कि निश्चय से प्रत्येक आत्मा पर से भिन्न है ॥ ३२ ॥”
उपरोक्त कथन यह सिद्ध करता है कि अरहंत भगवान का लोकालोक को जानना महत्वपूर्ण नहीं रहा। वरन् अपने आपको जानना ही महत्वपूर्ण है
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प्रश्न जिनवाणी में लोकालोक को, एक ही समय जानने के कारण अरहंत की सर्वज्ञता की इतनी महिमा क्यों की गई है ?
उत्तर ज्ञान का स्वभाव ही स्व- परप्रकाशक है । अत: अकेला स्वप्रकाशकपना महिमा योग्य नहीं है; उसीप्रकार अकेला पर प्रकाशकपना भी नहीं है। महिमायोग्य तो पूरा ज्ञानस्वभाव है। वह ज्ञान प्रकाश अरहंत भगवान को पूर्ण प्रकाशित हो गया, अतः ज्ञानस्वभाव के वर्णन में महिमा तो पूर्ण स्वभाव की ही की जाती है। लेकिन अज्ञानीजीव को स्वप्रकाशक ज्ञान की तो जानकारी ही नहीं है, मात्र परप्रकाशक ज्ञान ही उसके पास है, उसी का उसे अनुभव भी है।
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अज्ञानी के परप्रकाशक ज्ञान की शक्ति का विकास भी अति अल्प होता है, इस कारण विशेष जानने की लालसा तो निरन्तर बनी ही रहती है; फलस्वरूप निरन्तर दुःखी होता रहता है। ऐसे अज्ञानी को केवली के परप्रकाशक ज्ञान की महिमा बताने से ज्ञानस्वभाव की महिमा आ जाती है, अतः ऐसे अज्ञानी को स्वभाव की महिमा समझाने के लिए परप्रकाशक ज्ञान की मुख्यता से भी जिनवाणी में कथन किया गया है। फलस्वरूप तत्त्व अभ्यासपूर्वक यथार्थ श्रद्धा जागृत करने की पात्रता प्रगट हो जाती है ।
ज्ञानी पुरुष वास्तविक सुख का खोजी होने से भगवान अरहंत के स्वपरप्रकाशक स्वभाव के स्वरूप को समझ लेता है। अरहंत भगवान का ज्ञान स्वज्ञेय में एकत्व होने से परम अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव कर रहा है। मैं स्वयं भी वैसा ही आत्मा हूँ। जब वे स्वज्ञेय में एकत्व करके आनन्द का अनुभव कर रहे हैं, तो मैं भी पर से अपनापना तोड़कर,
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