________________
९२ )
( सुखी होने का उपाय भाग - ४
अस्तित्व भी ज्ञान के अतिरिक्त कौन बता सकेगा? उनका अस्तित्व भी ज्ञान में ही प्रकाशित होता है।
आचार्यश्री अमृतचन्द्रदेव ने समयसार के परिशिष्ट में ४७ शक्तियों के कथन के पूर्व निम्नप्रकार वर्णन किया है
" परस्पर भिन्न ऐसे अनन्त धर्मों के समुदायरूप से परिणत एक (आत्मा) ज्ञप्तिमात्र भावरूप से स्वयं ही है, अर्थात् परस्पर भिन्न ऐसे अनन्त धर्मों के समुदायरूप से परिणमित जो एक जाननक्रिया है, उस जाननक्रिया मात्र भावरूप से स्वयं ही है, इसलिए आत्मा के ज्ञानमात्रता है । इसलिए उसके ज्ञानमात्र एकभाव की अन्तःपातिनी (ज्ञानमात्र एकभाव के भीतर आ जाने वाली) अनन्त शक्तियाँ उछलती हैं। आत्मा के जितने धर्म हैं; उन सबको, लक्षण भेद से भेद होने पर भी प्रदेश भेद नहीं है; आत्मा के एक परिणमन में सभी धर्मों का परिणमन रहता है; इसलिए आत्मा के एक ज्ञानमात्र भाव के भीतर अनन्त शक्तियाँ रहती हैं ।”
ज्ञान की ऐसी कोई अचिन्त्य अद्भुत सामर्थ्य है कि उसकी स्वयं की स्वपरप्रकाशक शक्ति में अपनी स्वयं की अनन्त शक्तियों के साथ ही सारा विश्व एकसाथ ही हरसमय प्रकाशित होता रहे तो भी उसको कोई खेद नहीं होता । उस ज्ञान का सामर्थ्य तो इतना विशाल एवं गम्भीर है कि ज्ञेय और भी होते तो उनको भी आत्मा उस एक ही समय में सबके साथ जान लेता ।
---
प्रवचनसार गाथा ३६ के भावार्थ के अंत में निम्नप्रकार आया है
" इसप्रकार आत्मा की अद्भुत ज्ञानशक्ति और द्रव्यों की अद्भुत ज्ञेयत्व शक्ति के कारण केवलज्ञान में समस्त द्रव्यों की तीनों काल की पर्यायों का एक ही समय में भासित होना अविरुद्ध है ॥ ३६ ॥ *
इस ही ग्रन्थ की गाथा ४७ की टीका का निम्न अंश भी द्रष्टव्य
है—
टीका
" क्षायिकज्ञान वास्तव में एक समय में ही एर्वतः ( सर्व आत्म प्रदेशों से) वर्तमान में वर्तते तथा भूत-भविष्यतकाल में वर्तते,
Jain Education International
-
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org