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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (६५ परिपूर्णज्ञान श्रद्धान हुए बिना अन्य वस्तु से उसकी भिन्नता कैसे पहिचानी जा सकेगी? जैसे स्वर्ण में स्थायी रहने वाले गुणस्वभावों का यथार्थ ज्ञान श्रद्धान हुए बिना स्वर्णकार, शुद्ध स्वर्ण का मूल्यांकन नहीं कर सकता। अग्नि में तपाने पर भी स्वर्णत्व रह जाता है अत: वही स्थायी भाव है।
अप्रयोजनभूत वस्तु के गुणस्वभावों का मात्र सामान्य ज्ञान होना ही पर्याप्त है, क्योंकि जिस वस्तु को अपने से भिन्न मानना है, उसके विस्तार का ज्ञान करने से हमको क्या लाभ होगा? मात्र इतना ही जानना पर्याप्त है कि वह मेरे लिए प्रयोजनभूत नहीं है । अत: प्रयोजनभूत वस्तु के गुणस्वभावों का यथार्थज्ञान श्रद्धान होना तो अन्य से भिन्न पहिचानने के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
चौथा गुण-स्वभाव तो वस्तु के साथ व्याप्य-व्यापक हो कर रहते हैं, वस्तु से भिन्न नहीं किये जा सकते वे उस तादात्म्य होकर रहते हैं, वस्तु अगर सत् है तो वे गुणस्वभाव भी वस्तु के साथ त्रिकाल सत् रहेंगे। इसलिए यह सिद्ध है कि गुणस्वभाव वे ही हैं, जो वस्तु के साथ व्याप्य-व्यापक होकर तादात्म्य को प्राप्त हो गये हों, ऐसे गुणस्वभाव ही उसको पहिचानने के लिए लक्षण के रूप में कार्यकारी हो सकते हैं।
इसप्रकार उपरोक्त ऊहापोह के द्वारा भेदज्ञान के लिए महत्वपूर्ण सिद्धान्त निम्नप्रकार प्रगट होते हैं --- १. जिन दो वस्तुओं में भेदज्ञान करना हो उनमें से सर्वप्रथम यह निर्णय होना चाहिए कि इनमें प्रयोजनभूत वस्तु कौनसी है, जिसको अन्य
वस्तुओं से भिन्न पहिचानना है। २. दोनों वस्तुएँ स्वतंत्र सत्ताधारक (स्थाई नित्य ) वस्तुएँ होनी चाहिए ___ कहा भी है “सत्द्रव्य लक्षणं"। ३. वे वस्तुएँ अपने-अपने गुणस्वभावों में अभेदरूप से एक होकर रहती हैं। इसलिए वस्तु की सत्ता के साथ वे गुणस्वभाव भी अपनी
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