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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (७१
पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन
त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम्।। २३ ।। अर्थ - अयि यह कोमल सम्बोधन का सूचक अव्यय है। आचार्यदेव कोमल सम्बोधन से कहते हैं कि हे भाई ! तू किसी प्रकार महाकष्ट से अथवा मरकर भी तत्त्वों का कौतूहली होकर इस शरीरादि मूर्तद्रव्य का एक मुहूर्त (दो घड़ी) पड़ौसी होकर आत्मानुभव कर कि जिससे अपने आत्मा के विलासरूप, सर्व परद्रव्यों से भिन्न देखकर इस शरीरादि मूर्तिक पुद्गल द्रव्य के साथ एकत्व के मोह को शीघ्र ही छोड़ देगा।" ___ “मैं ज्ञानस्वभावी हूँ" ऐसे निर्णय की पूर्व भूमिका-पात्रता
.. उपरोक्त समस्त चर्चा से स्पष्ट है कि सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम ऐसा स्पष्ट एवं यथार्थ निर्णय होना चाहिए कि “मैं तो मात्र ज्ञायक ही हूँ, अर्थात् ज्ञानस्वभावी ही हूँ, मेरे में तो निरन्तर ज्ञानक्रिया ही प्रवाहित होती रहती है। अत: उस ज्ञानक्रिया में जो भी परज्ञेय ज्ञात होते हैं, उनसे मेरा मेरेपन का सम्बन्ध किंचित्मात्र भी नहीं है, मेरे ज्ञान में ज्ञेय के रूप में ज्ञात होने पर भी वे मेरे लिए तो मात्र उपेक्षणीय परज्ञेय ही हैं। अपेक्षणीय अर्थात् अपनत्व एवं एकत्व करने योग्य तो एकमात्र मेरा ज्ञानस्वभावी आत्मा ही है।” इसप्रकार रुचिपूर्वक निर्णय होने का अपनी परिणति में फल अवश्य आता हो है । क्षयोपशम ज्ञान में ऐसा निर्णय कर लेने पर भी अगर परिणति में परिवर्तन नहीं आया तो आत्मा को क्या लाभ हुआ? जैसे किसी लौकिक समस्या को सुलझाने के लिए निर्णय किया जाता है ऐसा ही यह निर्णय होगा। उसका लाभ आत्मा की परिणति को नहीं होता।
प्रश्न - परिणति में परिवर्तन की पहिचान क्या है?
उत्तर - यह बात स्पष्ट है कि परिणति स्वयं की है और स्वयं का ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है; अत: हरएक आत्मा को अपनी परिणति का ज्ञान अवश्य होता ही है।
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