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( सुखी होने का उपाय भाग-४ जैसे जब तक यह जीव परज्ञेय अर्थात् स्वयं के शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, कुटुम्बादि एवं घर, मकान, रुपया, पैसा आदि परद्रव्यों में ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ; तथा मैं इनको जैसा चाहूँ परिवर्तित कर सकता हूँ ऐसा मानकर, उनको अपनी इच्छानुसार परिणमन कराने के लिए तथा प्रतिकूलताओं को हटाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। उसके कारण इसकी परिणति निरन्तर आकुल व्याकुल रहती है । इसका ज्ञान भी हर समय इसको होता ही रहता है।
इसीप्रकार आगमाभ्यास, गुरूपदेश एवं सत्समागम आदि के द्वारा वह जीव यथार्थ वस्तुस्वरूप को जब समझ लेता है कि “मैं तो ज्ञानस्वभावी ज्ञायक आत्मा हूँ, परज्ञेय तो मेरे से भिन्न हैं, वे अपने-अपने द्रव्य, गुण, पर्यायों में मेरी अपेक्षा रखे बिना स्वयं अपने ही सामर्थ्य से परिणमते हैं
और परिणमेंगे, मैं उनके परिणमनों में किंचित्मात्र भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता, मात्र उनको व उनके परिवर्तनों को उपेक्षाबुद्धि से तटस्थ रहकर जान ही सकता हूँ" ऐसी श्रद्धा जागृत होते ही उसको अपनी परिणति में शान्ति आये बिना रह ही नहीं सकती। इसप्रकार का परिवर्तन उसको अनुभव में आने से वह स्वयं अपनी परिवर्तित परिणति का ज्ञान अवश्य ही कर लेता है।
इसी परिवर्तन का स्पष्ट चित्रण पद्मनन्दि पंचविंशतिका के परमार्थविंशति अधिकार के श्लोक १९ में निम्नप्रकार किया है -
“जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथा कौतुकं शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरे पिच । मौनं च प्रतिभासते पि च रहः प्रायो मुमुक्षोश्चितः चिन्तायामपि था तिमिच्छति समं दोषर्मन: पचताम् ।। १९ ।।
भावार्थ - चैतन्यस्वरूप आत्मा के चिन्तन में मुमुक्षुजन के (लौकिक) रस नीरस हो जाते हैं, सम्मिलित होकर परस्पर चलने वाली विकथाओं का कौतूहल नष्ट हो जाता है, इन्द्रिय विषय विलीन हो जाते हैं, शरीर के विषय में भी प्रेम का अन्त हो जाता है, एकान्त में मौन
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