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( सुखी होने का उपाय भाग-४ लिए जब कोई व्यक्ति स्वर्णकार के पास जाता है तो स्वर्णकार सर्वप्रथम उस डली में कितना तो शुद्ध स्वर्ण है व कितना अस्वर्ण है, इसका कसौटी पर कसकर परीक्षा करके अपनी पारखी दृष्टि के द्वारा उसमें असली स्वर्ण को पहिचानकर, मूल्यांकन कर लेता है । स्वर्णकार की दृष्टि इतनी परिपक्व होती है कि डली को छिन्न-भिन्न करे बिना, स्वर्ण के लक्षणों का यथार्थज्ञान होने से, असली स्वर्ण को पहिचान लेता है।
इसप्रकार प्रयोजनभूत तत्त्व के स्वरूप एवं लक्षण का स्पष्ट ज्ञान होना, भेदज्ञान करने के पूर्व अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
भेदज्ञान करने के पूर्व इसका यथार्थ ज्ञान श्रद्धान होना चाहिए कि जिनमें भेद किया जाना है; वे दोनों अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता रखने वाले दो पदार्थ हैं। दोनों स्वतंत्र पदार्थ होने पर भी, वर्तमान दशा में वे मिल गए हों, ऐसा दिखता होने पर भी, वे अपनी-अपनी सत्ता का अभाव नहीं कर देते। क्योंकि जिनकी सत्ता ही समाप्त होकर दोनों एक हो जावेंगे तो उनको भिन्न कोई कैसे कर सकेगा? अत: सिद्ध होता है कि हरएक वस्तु अपनी-अपनी सत्ता कायम रखते हुए भी, मात्र वर्तमान दशा में एकमेक हो गई हो ऐसा दिखने लग गई है, लेकिन वास्तव में एक नहीं हुई है, आचार्य उमास्वामी ने वस्तु की परिभाषा भी इसप्रकार की है -
“सत्द्रव्य लक्षणं और उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्तंसत्” वस्तु वही है जिसकी सत्ता सदैव बनी रहे और वह अपने गुण-स्वभावों की अवस्थायें क्षण-क्षण में बदलते हुए भी वे ध्रुव (नित्य) उस वस्तु में बने रहें, यह वस्तु मात्र का स्वभाव है।
तीसरा विषय है कि दोनों वस्तुयें भिन्न-भिन्न सत्ता रखने वाली होने पर भी उसमें प्रयोजनभूत वस्तु के उन के गुण-स्वभाव क्या-क्या हैं, जो उस किसी भी परिस्थिति में वस्तु से भिन्न नहीं हो सकें। तथा वे गुण स्वभाव अप्रयोजनभूत वस्तु में नहीं पाये जावें । उनका यथार्थ ज्ञान श्रद्धान होना अत्यन्त आवश्यक है। प्रयोजनभूत वस्तु के गुणस्वभावों का
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