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( सुखी होने का उपाय भाग - ४
सब नाम हैं। मेरे ज्ञानतत्त्व की, एक समय की पर्याय, स्व के साथ उपरोक्त समस्त ज्ञेयों को, एक साथ ही जान सकने की सामर्थ्यवाली है । जानते हुए भी वह पर्याय, स्वयं उन ज्ञेयों रूप नहीं होकर अपना भिन्न अस्तित्व बनाये रखतीं है तथा किसी ज्ञेय से सम्बन्ध भी नहीं जोड़ती। सादि अनन्तकाल तक भी ऐसी पर्यायें, मेरे जीवतत्त्व में से प्रवाहित होती रहें, फिर भी उसमें कभी कोई कमी नहीं आ सकती, ऐसा अक्षय, अनन्त सामर्थ्यवान मैं जीवतत्त्व हूँ। मेरी ज्ञान पर्याय में ज्ञात होने वाला परज्ञेयों का समस्त परिकर, मेरे लिए मात्र उपेक्षणीय है, इसके अतिरिक्त उनसे मेरा अन्य कोई प्रकार का सम्बन्ध भी नहीं है । इसप्रकार सारे ज्ञेयों से अपनी अधिकता लगने पर, अपने आत्मा की महिमा जागृत होकर, समस्त परज्ञेयों के प्रति अत्यन्त उपेक्षाबुद्धि जागृत हो जावे, आत्मार्थी का यही एकमात्र कर्तव्य रह जाता है । इसप्रकार “ एक ओर राम और एक ओर गाँव की लौकिक कहावत चरितार्थ होती है, और सर्वज्ञता की यथार्थ श्रद्धा जागृत होती है ।
इसप्रकार समस्त परज्ञेयों में सम्मिलित उपरोक्त सभी पदार्थों को अजीवतत्त्व के समान समझकर, भिन्नपने की यथार्थ श्रद्धा जागृतकर, सबके प्रति उपेक्षाबुद्धि जागृत करना ही जीव अजीवतत्त्व की यथार्थ समझ एवं यथार्थ प्रतीति है और यही आत्मा को ज्ञानस्वभावी स्वीकार करना है
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उपरोक्त सन्दर्भ में कतिपय आगम वाक्य निम्नप्रकार हैं३८ निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ, सदा अरूपी हूँ, किंचितमात्र अन्य परद्रव्य, परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, यह निश्चय है। - ३१ जो इन्द्रियों को जीतकर ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्यों से अधिक आत्मा को जानते हैं, उन्हें साधु जितेन्द्रिय कहते हैं ।
समयसार गाथा
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