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( सुखी होने का उपाय भाग - ४
आत्मार्थी जीव को इस सन्दर्भ में उक्त विषय का पुनः अध्ययन कर लेना चाहिए । विशेषरूप से भाग-३ के पृष्ठ १७ से ४५ तक एवं पृष्ठ १०८ से १३३ तक तो अवश्य ही अनुशीलन करना चाहिए।
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उपरोक्त अध्ययन के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि मेरे जीवतत्त्व का स्वरूप भगवान अरहंत के समान है। भगवान अरहंत का पर्याय सहित द्रव्य जैसा वर्तमान में प्रगट प्रकाशमान है, वैसा ही मेरा जीवतत्त्व भी है । जीवतत्त्व का निर्णय करने वाले आत्मार्थी के ज्ञान में यह स्पष्ट रहना चाहिए कि जीवतत्त्व तो मेरे आत्मद्रव्य का नित्यपक्षध्रुवपक्ष है, वह अपना मानने योग्य है और बाकी रहे छहों तत्त्व मेरे उसी आत्मद्रव्य के अनित्यपक्ष - उत्पाद - व्ययपक्ष हैं, उनमें से आस्रव-बंध का अभाव कर, संवर - निर्जरा प्रगट कर, मोक्षदशा अर्थात् सिद्धदशा प्राप्त होगी । लेकिन जीवतत्त्व का स्वरूप समझते समय, पर्यायपक्ष अत्यन्त गौण रहना चाहिए, अन्यथा जीवतत्त्व का स्वरूप भी स्पष्ट समझ में नहीं आ सकेगा ।
लेकिन जब प्रमाण के विषयभूत जीवद्रव्य का स्वरूप समझना हो तो ध्रुवपक्ष एवं उत्पाद- व्ययपक्ष (अध्रुवपक्ष) दोनों पक्षों को ध्यान में रखते हुए ही उसका स्वरूप समझना होता है। क्योंकि “ उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्" ही द्रव्य है । अतः जीव द्रव्य का स्वरूप तो साततत्त्वमय ही है, उसमें नित्यपक्ष ध्रुवपक्ष का परिचायक जीवतत्त्व है एवं अजीवतत्त्व तो जीव से भिन्न ही है, बाकी रहे पर्यायपक्ष के परिचायक बाकी पांचों तत्त्व हैं; उन सब को सम्मिलित करके समझने से ही जीव का यथार्थ ज्ञान संभव हो सकेगा। लेकिन जब उसी जीवद्रव्य के दोनों पक्षों में से अकेले जीवतत्त्व का ही स्वरूप समझना हो तो नित्यपक्ष को मुख्य करके अनित्यपक्ष (जीवद्रव्य में विद्यमान रहते हुए भी) को अत्यन्त गौण रखना होगा; तभी जीवतत्त्व का स्वरूप समझ में आ सकेगा। नित्यपक्ष अर्थात् जीवतत्त्व को जाननेवाले ज्ञान को द्रव्यार्थिकनय एवं अनित्यपक्ष अर्थात् पर्यायों एवं गुणभेदों के जाननेवाले ज्ञान को पर्यायार्थिकनय कहा गया
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