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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (५३ अत: ज्ञान-दर्शन की पर्याय ही आत्मा को प्रसिद्ध करती है। अत: हमारे ज्ञान पर्याय के माध्यम से आत्मा जाना जा सकता है, श्रद्धा में भी आ सकता है और उसका अनुभव भी हो सकता है। नास्ति पक्ष के आठ बोलों के माध्यम से आत्मा को पहचान कराने का प्रयास असफल होता है और अस्तिपक्ष चेतना के द्वारा आत्मा का अनुभव हो सकता है।
प्रश्न - उपरोक्त गाथा को ही कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने पाँचों परमागमों में अविकल रूप से क्यों दिया?
समाधान - यथार्थत: विचार किया जावे तो इस गाथा में, जीवतत्त्व का स्वरूप अस्तिनास्तिपूर्वक स्पष्ट बताया गया है। जब तक हमको जीवतत्त्व का स्वरूप ही यथार्थ समझ सहित श्रद्धा में अपनेपने पूर्वक अपना स्थान नहीं बना लेगा तब तक आत्मदर्शन हो ही नहीं सकेगा
और उसके अभाव में मोक्षमार्ग भी प्रारम्भ नहीं होगा। अत: मोक्षार्थी को अपने अस्तित्व का अर्थात् अपने जीवतत्त्व का स्वरूप, हर अपेक्षा से स्पष्ट समझ में आना चाहिए, तभी समीचीन श्रद्धा का जन्म हो सकता है। यही कारण है कि आचार्यश्री ने पाँचों परमागमों में अलग-अलग दृष्टिकोणों के माध्यम से एक जीवतत्त्व का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए ही इस गाथा का उपयोग किया है।
प्रश्न - आत्मा तो अमूर्तिक है, वह इन्द्रियज्ञान का विषय कैसे हो सकता है? इन्द्रियज्ञान का विषय तो मूर्तिक ही होता है और जो मूर्तिक होता है, वही इन्द्रियज्ञान का विषय बनता है।
समाधान - इसही को दृष्टिगत रखते हुए ही आचार्यश्री ने इस गाथा में अस्ति-नास्ति दोनों दृष्टिकोणों के माध्यम से जीवतत्त्व का स्वरूप स्पष्ट किया है। अज्ञानी मनजनितज्ञान से अपनी कल्पना के द्वारा आत्मा का अनुभव करना चाहता है; लेकिन मन के विचारों द्वारा भी अगर आत्मा के स्वरूप की कल्पना की गई तो वह भी मनजनित ही होगा और मनजनितज्ञान, इन्द्रियज्ञान होने से उससे आत्मा का अनुभव नहीं हो सकेगा।
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