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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (५५
अज्ञानी, आत्मा का ज्ञान करने के लिए उपरोक्त आठों प्रकारों में ही संलग्न रहता है , इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय हो सकता है? ऐसी शंका भी खड़ी नहीं होती। फलत: उसका पूरा जीवन निरर्थक चला जाता है। आत्मा के सम्बन्ध में थोड़े अभ्यास के द्वारा अपने को अभ्यासी मानने वाले व्यक्ति भी, उपरोक्त प्रकार के मनजनित विकल्पों के द्वारा आत्मा का अनुभव कर लेने की मान्यता रखते हैं। अथवा किसी चिन्ह की कल्पना करके उसके द्वारा आत्मा का अनुभव करने का प्रयास करते रहते हैं। अथवा अपनी पर्यायों में ही आत्मा को ढूढ़ते रहने के अभ्यास द्वारा, अथवा शास्त्राभ्यास के माध्यम से आत्मा का स्वरूप जानकर अनुमान के द्वारा भी आत्मा का अनुभव कर लेने के श्रम में निरन्तर संलग्न रहते हैं। इसप्रकार के अनेक पुरुषार्थों का उपरोक्त गाथा के द्वारा निषेध हो जाता है और स्पष्ट हो जाता है कि इन आठों प्रकारों के द्वारा आत्मा नहीं पहिचाना जा सकता । क्योंकि आत्मा में वे सब नहीं होने से आत्मा उनका विषय कैसे बन सकेगा।
इसप्रकार नास्तिपक्ष के आठ प्रकार बताकर उनके निषेध के साथ-साथ आत्मा का अनुभव कैसे किया जावे उसके समाधान स्वरूप उक्त गाथा में आचार्यश्री ने अस्तिपक्ष से भी आत्मा का स्वरूप बताया
है।
अस्तिपक्ष - आत्मा चेतना गुण वाला है अर्थात् आत्मा (ज्ञान, दर्शन) स्वभाव वाला है। स्वभाव, स्वभाववान् से कभी किसी भी दशा में भिन्न नहीं हो सकता । अत: आत्मा को पहिचानने का कोई लक्षण हो सकता है तो मात्र एक चेतना (ज्ञान, दर्शन) ही लक्षण हो सकता है।
उपरोक्त समस्त चर्चा से निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा को पहिचानने का मात्र एक ही लक्षण है वह है चेतना। उस चेतना का परिचायक एकमात्र उपयोग है । वह उपयोग दो प्रकार से परिणमित होता है एक तो दर्शनोपयोग और दूसरा ज्ञानोपयोग । समस्त ज्ञेयपदार्थ सामान्य
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