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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (५१
गाथा
अरसमरूवमगंधं अव्वतं चेदणागुणमसइं। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंठाणं ।। ४९ ।। हिन्दी पद्यानुवाद - जीव चेतना गुण, शब्द-रस-रूप-गंध-व्यक्तिविहीन है। निर्दिष्ट नहिं संस्थान उसका ग्रहण नहिं है लिंग से ।। ४९ ॥
अन्वयार्थ - हे भव्य ! तू जीव को रसरहित, रूपरहित, गन्धरहित, अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियगोचर नहीं ऐसा चेतना जिसका गुण है ऐसा, शब्दरहित, किसी चिन्ह से ग्रहण नहीं होने वाला और जिसका कोई आकार नहीं कहा जाता ऐसा जान।
पंचास्तिकाय के मोक्षमार्ग प्रपंच अधिकार में इस गाथा का प्रयोग जीवद्रव्य को उसके लक्षणों के माध्यम से छह द्रव्यों से, भिन्नता करने की दृष्टि से हुआ है। प्रवचनसार के ज्ञेय अधिकार में इस ही गाथा का प्रयोग स्वज्ञेय तत्त्व का स्वरूप कैसा है उसके स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए हुआ है, इसीप्रकार नियमसार के शुद्धभाव अधिकार में अपने स्वतत्त्व का शुद्धोपयोग दशा में जो प्रत्यक्ष अनुभव हुआ है, अनुभव के आधार से अपने त्रिकाली ज्ञायक परमात्मा का स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए इस ही गाथा का प्रयोग हुआ है और समयसार में श्रद्धा का श्रद्धेय जो अभी तक श्रुत परिचित अनुभूत नहीं है उसके स्वरूप का अस्तिनास्तिपूर्वक यथार्थ ज्ञान कराकर उसमें अहंपने की श्रद्धा उत्पन्न कराने की मुख्यता से इस गाथा का प्रयोग हुआ है। टीकाकार आचार्यश्री अमृतचन्द्रदेव ने इस गाथा को अत्यन्त महत्वपूर्ण समझकर इस गाथा के कठिन से कठिन तथा छुपे हुए तथ्यों को स्पष्टीकरणपूर्वक उजागर कर दिया है। इस गाथा के नास्तिपक्ष के ८ बोलों में से, अरस, अरूप, अगंध, अशब्द, अस्पर्श तथा अनिर्दिष्ट संस्थान इन छह से रहित आत्मा को समयसार गाथा ४९ की टीका में सिद्ध किया है अत: इनके माध्यम से आत्मा नहीं पहचाना जा सकता । साथ ही आत्मा अव्यक्त तथा अलिंगग्रहण भी है, इन दोनों का अभिप्राय समझना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है; टीकाकार आचार्य
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