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( सुखी होने का उपाय भाग-४ जीवतत्त्व का स्वरूप क्या है? इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे, क्योंकि अपने अस्तित्व का स्वरूप समझे बिना दुःख से छुटकारा नहीं हो सकता।
भेदज्ञान का आधार-जीवतत्त्व उपरोक्त सम्पूर्ण विषय को गम्भीरता से अध्ययन करने का तात्पर्य यह निर्णय करना है कि “मैं कौन हूँ? और मेरा स्वरूप क्या है?” जब तक अपने स्वरूप को यथार्थ समझकर, अकाट्य निर्णय नहीं करेगा तो अन्य सबसे भिन्न अपने आपको कैसे अनुभव कर सकेगा? अत: आत्मार्थी का सर्वप्रथम कर्तव्य है कि जैसे भी बने, कितना भी समय लगे, कितना भी कष्ट उठाना पड़े, कितना भी अध्ययन करना पड़े, सत् समागम के लिए कितना भी भटकना पड़े, एकमात्र अपने स्वरूप को समझकर उसको ही “मैं” के रूप में इतनी दृढ़ता के साथ स्वीकार करे कि कोई कितना भी चलायमान करे तो भी अपनी मान्यता, श्रद्धा, विश्वास पर अडिग बना रहे, सुमेरु के समान अचल बना रहे । क्योंकि जब तक अपने स्वरूप का नि:शंक रूप से श्रद्धा-विश्वास नहीं जमेगा, तब तक आत्मा में दिखने वाली अनेक प्रकार की विकृतियों से अपने को भिन्न कैसे मान सकेगा? अर्थात् भेदज्ञान नहीं हो सकेगा। यथार्थ भेदज्ञान के अभाव में यथार्थ मार्ग प्रारम्भ ही नहीं होगा। यह भेदज्ञान ही पूर्णदशा प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। आचार्यश्री अमृतचन्द्र ने. इस भेदज्ञान की महिमा एवं उपयोगिता समयसार कलश १३० तथा १३१ में निम्नप्रकार वर्णन की
है।
(अनुष्टुभ) भावयेभेदविज्ञानमिदमच्छिन्त्रधारया । तावद्यावत्परांच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते ।। १३० ।। भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धाः ये किल केचन ।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।। १३१ ।।
अर्थ - यह भेदविज्ञान अवच्छिन्न धारा से (जिसमें विच्छेद न पड़े ऐसे अखण्ड प्रवाहरूप से) तब तक भाना चाहिए जब तक ज्ञान परभावों से छूटकर ज्ञान ज्ञान में ही (अपने स्वरूप में ही) स्थिर हो जाये।
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