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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (४५ क्षण-क्षण में पलटनेवाला पक्ष, जिसको जिनवाणी में पर्याय के नाम से कथन किया गया है, उसही के भेद ये पाँच तत्त्व – आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष हैं। इनमें से हमको पहिले नित्यपक्ष वाले जीवतत्त्व का स्वरूप समझना है।
हमारे आत्मा में नित्यपक्ष एवं अनित्यपक्ष दोनों एकसाथ विद्यमान होते हुए भी दोनों में विषमता है । इस विषमता के बीच फंसे हुए जीवतत्त्व को समझने में ही कठिनता प्रतीत होती है। अत: हमारे जीवतत्त्व का स्वरूप समझने के लिए हमें ऐसी किसी आत्मा को खोजना पड़ेगा जिसमें से विषमता का अभाव होकर पर्याय भी द्रव्य के समान हो जाने से आत्मा के स्थाईपक्ष एवं अस्थाईपक्ष का अन्तर समाप्त हो गया हो। ऐसी आत्मा का स्वरूप, स्थाईपक्ष से देखो तो भी द्रव्य (ध्रुव) जैसा ही दिखेगा और अस्थाईपक्ष की ओर से देखो तो भी द्रव्य (ध्रुव) जैसा ही दिखेगा अत: ऐसी आत्मा का स्वरूप ही मेरे जीवतत्त्व के स्वरूप का स्पष्ट ज्ञान करा सकेगा।
उपरोक्त समस्या का समाधान श्रीमद् आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने प्रवचनसार की गाथा ८० में निम्नप्रकार किया है।
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्त गुणत्त पज्जयत्तेहिं। सो जाणदि अप्पाणं मोहों खलु जादि.तस्स लयं ॥ १८० ।।
उपरोक्त गाथा में आचार्यश्री का भी यही निर्देश है कि अपने आत्मा-जीवतत्त्व का स्वरूप समझने के लिए भगवान अरहंत की आत्मा को द्रष्टान्त के रूप में मानकर समझना पड़ेगा, क्योंकि उनके आत्मा की पर्याय, द्रव्य के समान हो गई है अर्थात् उनकी आत्मा का व्यक्त स्वरूप (पर्याय का स्वरूप) ही हमारे जीवतत्त्व का स्वरूप है। इसप्रकार हमारी पर्याय और द्रव्य में विषमता विद्यमान रहते हुए भी, हम भगवान अरहंत की आत्मा की पर्याय का स्वरूप समझने से, अपने जीवतत्त्व का स्वरूप समझ सकते हैं। इसकी विस्तार से चर्चा भाग-३ में की जा चुकी है पुनरावृत्ति एवं विस्तारभय से पुन: चर्चा यहाँ नहीं की जा रही है, लेकिन
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