________________
४४)
( सुखी होने का उपाय भाग-४ जानकारी होना अत्यन्त आवश्यक है। अत: उक्त विषय को कठिन मानकर एवं विद्वानों की चीज कहकर उपेक्षा करने से अपने आत्मा के यथार्थ स्वरूप को समझने में सफलता मिलना अत्यन्त कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है।
जीवतत्त्व का स्वरूप उपरोक्त नयादि के ज्ञान द्वारा हमको हमारे जीवतत्त्व की पहिचान करनी है, वह जीवतत्त्व कौन है, उसका स्वरूप क्या है उसके पहिचानने से क्या लाभ होगा इत्यादि का ज्ञान होना आवश्यक है, क्योंकि इनका पर्याप्त ज्ञान हुए बिना उसको कैसे पहिचाना जा सकता है? __आत्मा तो उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक एक अभेद वस्तु है, उस एक अभेद आत्मवस्तु के ही सदैव एकरूप बने रहने वाले ध्रौव्यात्मक स्थाईपक्ष को द्रव्य कहा गया है एवं उसी वस्तु के सदैव पलटते रहने वाले अस्थाईपक्ष को पर्याय कहा गया है। इन दोनों पक्षों की समुदायरूप अभेदवस्तु के ही यथार्थ स्वरूप का, सातं तत्त्वों के माध्यम से परिचय कराया गया है। उनमें से स्थाई-ध्रुवपक्ष तो जीवतत्त्व है और जीव की पर्यायें आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व हैं। इसप्रकार दोनों पक्षों के समुदायरूप आत्मा ही एक वस्तु है। अजीवतत्त्व ही ऐसा है, जो आत्मा से अन्य होते हुए भी, विश्व में अपना अस्तित्व बनाए हुए विद्यमान है और परज्ञेयरूप से आत्मा के ज्ञान में ज्ञात भी होते हैं। अत: अजीव को भी साततत्त्वों में गर्भित किया गया है। क्योंकि ज्ञान में ज्ञात होने पर आत्मा को इनमें एकत्व होना संभव है, अत: उसके निवारण के लिए उन्हें परज्ञेय के रूप में स्वीकार करते हुए भी पर होने से उनके प्रति उपेक्षाबुद्धि बनी रहे, इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए सात तत्त्वों में अजीवतत्त्व का समावेश कर, उसका भी यथार्थ ज्ञान कराना आवश्यक है। __यह तो पहिले निर्णय कर चुके हैं कि आत्मा का स्थाई पक्ष, नित्यपक्ष, नहीं पलटनेवाला पक्ष, जिसे ध्रुव अथवा द्रव्य के नाम से जिनवाणी में सम्बोधित किया गया है वह जीवतत्त्व है और अस्थाईपक्ष, अनित्यपक्ष,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org