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में ध्रुव और पर्याय का विभागीकरण करके एकमात्र त्रिकाली ध्रुवतत्त्व अपनापन कराकर, पर्याय मात्र में परपना स्थापन कराना है ।
द्रव्य की परिभाषा द्वारा समस्त विश्व (लोकालोक) से अपनापन तोड़कर, अपने स्वद्रव्य में परिणति को समेट लेना है और तत्त्व की परिभाषा के अनुसार अपनी परिणति को पर्याय मात्र में समेटकर, एकमात्र त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवतत्त्व में एकत्व कराना है ।
( सुखी होने का उपाय भाग - ४
में
सात तत्त्वों के माध्यम से उपरोक्त विषय का विस्तृत विवेचन जिनवाणी में विस्तार से उपलब्ध है । समस्त द्वादशांगवाणी एकमात्र उपरोक्त समस्या का समाधान ही प्रस्तुत करती है । कारण स्पष्ट है कि प्राणीमात्र को सुख चाहिए। सुख का लक्षण तो निराकुलता है, ऐसा सुख धर्म से प्राप्त होता है; इसलिए प्राणी धर्म की शरण लेता है ।
अपनी आत्मिक शान्ति प्राप्त करने के लिए आत्मार्थी जब अपने द्रव्य में अनुसंधान करता है तो उसको अपने आत्मद्रव्य में एक ही समय, एक ही साथ शान्ति - अशान्ति का अनुभव होता है। आत्मा क्रोध के समय सम्पूर्ण क्रोधी नहीं हो जाता, आंशिक शान्ति भी वर्तती रहती है। इसलिए आत्मा का अनुसंधान करते हैं तो स्पष्ट समझ में आ जाता है कि द्रव्य तो गुण- पर्यायों का समुदाय अखण्ड पिण्ड है । इसमें ध्रुव पक्ष एकरूप रहते हुए भी, हर समय पलटता रहता है। पलटने वाले पक्ष को ही पर्याय कहा गया है और एकरूप ध्रुव बने रहने वाले पक्ष को द्रव्य (ध्रुव) कहा गया है । अनुभव में भी आता है कि क्रोध तो आकर चला जाता है। लेकिन जीवद्रव्य तो क्रोध आने पर भी और चले जाने पर भी एकरूप ही बना रहता है । अतः स्पष्ट समझ में आता है कि क्रोधादि भाव तो पर्याय होने से पर्याय तक सीमित रहते हैं, लेकिन द्रव्य (ध्रुव) तो उ पर्यायरूप भावों के साथ नहीं बदलता, वरन् एकरूप जैसा का तैसा धुव बना रहता है। इससे यह स्पष्ट है कि क्रोधादि भाव तो पलटने के स्वभाव वाली पर्याय हैं; अतः उसको दूर किया जा सकता है । उसको दूर करने
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