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( सुखी होने का उपाय भाग-४ जीवतत्त्व की खोज करने से ही सफलता प्राप्त हो सकेगी। यही एकमात्र कर्तव्य है।
इसप्रकार जीवद्रव्य एवं जीवतत्त्व के अन्तर को समझकर मात्र अपने जीवतत्त्व में ही अपनापन स्थापन कर हेयभावों का अभाव एवं उपादेय भावों को प्राप्त करते हुए पूर्णदशा प्राप्त करने में सदैव तत्पर रहना चाहिए।
जीवतत्त्व को खोजने के लिए
सात तत्त्वों की समझ आवश्यक मेरा स्वभाव भी सिद्ध भगवान जैसा है; अत: ऐसा ही परिणमन होना मेरा स्वभाव है और वही तत्त्वार्थ है। प्रत्येक द्रव्य का जो स्वभाव हो, उस रूप ही परिणमना उसका स्वभाव है। मैं भी एक जीवद्रव्य हूँ, इसलिए मुझे मेरे आत्मद्रव्य के अन्दर ही अपने स्वभाव एवं स्वाभाविक भावों एवं विभाव भावों को समझकर अपने स्वतत्त्व को खोज निकालना है, ताकि उसमें ही मुझे मेरापन भासने लगे और अन्य जिनमें मेरापना मान रखा है, उन सबसे मेरे पने की मान्यता का अभाव हो सके।
जब अपने द्रव्य के अन्तर में खोज करते हैं तो उसमें एक तो स्थायी भाव, नित्यभाव, ध्रुव एकसा बना रहनेवाला भाव ज्ञात होता है और उसी समय परिवर्तनस्वरूप अस्थाई, अनित्य, अध्रुव, हर क्षण में बदल जाने वाले भाव भी अनुभव में आते हैं। उन अनित्यभावों के ही सात प्रकार हैं, जिनको पर्याय कहा जाता है और उनका ही सात तत्त्वों अथवा नव पदार्थों के नाम से जिनवाणी में वर्णन है, अत: स्वतत्त्व की खोज के लिए तत्त्वों को समझना अत्यन्त आवश्यक है।
आचार्यश्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रारम्भ में ही कहा है - “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः” तथा “तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं" सूत्र के द्वारा, तत्त्वों के माध्यम से जीव पदार्थ का यथार्थ स्वरूप जानकर, पहिचानकर, यथार्थ श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन कहा है। मोक्षमार्ग का प्रारम्भ ही तत्त्वार्थ श्रद्धान से होता है। आचार्यश्री ने
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