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( सुखी होने का उपाय भाग-४ ऐसा सुनने मात्र से ही एक घबराहट खड़ी हो जाती है; अज्ञानी का मानना है कि प्रमाण और नयों का विषय तो विद्वानों की ही समझ में आ सकता है, हमारी बुद्धि इतनी कुशाग्र नहीं है कि हम नयादि के विषय को समझ सकें? लेकिन उनके यथार्थ प्रयोग बिना तत्त्वों का यथार्थ निर्णय हो नहीं सकता, इसप्रकार तो हमको आत्मज्ञान प्राप्त करना असंभव ही हो जावेगा?
भाई ! ऐसा नहीं है, क्योंकि सैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंच को भी सम्यग्दर्शन तो हो ही सकता है और होता भी है और यह भी सत्य है, प्रमाणनय के ज्ञान बिना यथार्थ निर्णय नहीं होता और यथार्थ निर्णय के बिना सम्यग्दर्शन भी नहीं होता। अत: यह नियम तो सबके लिए एक समान ही लागू होगा न? इससे ज्ञात होता है कि प्रमाणनय का यथार्थ स्वरूप समझने की चेष्टा ही नहीं की। जिसको तिर्यंच भी समझ सकता है, वह कठिन कैसे हो सकता है; इसलिए सर्वप्रथम हमको यह समझना चाहिए यथार्थ निर्णय करने के लिए, नय की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है? यथार्थ निर्णय करने में नयादि का ज्ञान आवश्यक क्यों?
उपरोक्त विषय को समझने के भी पहले सबसे पहिले हमको उस वस्तु को समझना चाहिए जिसका हमें निर्णय करना है और जिसके निर्णय करने के लिए नयादि के ज्ञान की आवश्यकता होती है।
जब हम अपनी आत्मा का अनुसंधान करते हैं तो उसमें दो पक्ष हमारे सामने उपस्थित रहते हैं। एक तो नित्य एकरूप बने रहने वाला स्थाई. ध्रुवपक्ष, दूसरा अनित्य क्षण-क्षण में पलटनेवाला, अध्रुवपक्ष । इसप्रकार जब मेरे ज्ञान के सामने दो पक्ष एक साथ उपस्थित होते हैं, तो मेरे सामने समस्या खड़ी हो जाती है कि इन दोनों में से किस पक्ष रूप मैं अपने आप को मानूं। क्योंकि दो के रूप में तो मैं अकेला कैसे हो सकता हूँ? अत: मुझे इन दोनों में से किसी एक पक्ष को ही अपनापन स्थापन करने के लिए चुनना पड़ेगा। अत: चाहे मनुष्य हो अथवा तिर्यंच
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