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( सुखी होने का उपाय भाग-४ समस्त द्वादशांग का केन्द्रबिन्दु भी इसी समस्या को हल करने का है कि “अपने आत्मद्रव्य में से भी अपने जीवतत्त्व को भिन्न कर, उसे पहिचानना और उसमें अपनापन स्थापन कर पर्याय आदि सबसे ममत्व छोड़ना?" अत: आत्मार्थी को पूर्ण सावधानीपूर्वक सत्समागम के द्वारा जिनवाणी का लगन के साथ रुचिपूर्वक अध्ययन करके अपने जीवतत्त्व को खोज लेना चाहिए।
___द्रव्य की परिभाषा द्रव्य का स्वरूप तो आप इसी पुस्तक के प्रथम भाग के माध्यम से समझ ही चुके हैं कि “सत् द्रव्य लक्षणं, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्, गुणपर्ययवद्रव्यं ।" द्रव्य का लक्षण तो सत् है और वह सत् हर समय पलटते हुए भी, ध्रुव एकरूप शाश्वत बना रहता है तथा वह ध्रुवतासहित पलटनेवाला द्रव्य स्वयं अनन्तगुणों का एकरूप अखण्ड पिण्ड है और वही हर समय ध्रुवरूप रहते हुए भी अनन्तगुणों सहित हर समय पलटता रहता
तत्त्व की परिभाषा सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ के प्रथम अध्याय के सूत्र २ में तत्त्व की परिभाषा निम्नप्रकार बताई गई है - “तस्य भावस्तत्त्वं, तस्य कस्य? यो यथावस्थित:तथा तस्य भवनमित्यर्थः ।"
अर्थ - जो जिसाका भाव (स्वभाव) हो वह तत्त्व है, किसका भाव? जो पदार्थ जैसा है, उसका उसी रूप से परिणमना तत्त्व शब्द का अर्थ है।
जीव द्रव्य एवं जीव तत्त्व का अन्तर समझना अब द्रव्य एवं तत्त्व की परिभाषाओं को समझकर उन दोनों में क्या अन्तर है यह समझना है। समझने का उद्देश्य तो एकमात्र आत्मानुभव प्राप्त करने का होना चाहिये, उद्देश्य की सिद्धि के लिये स्व एवं पर के विवेकपूर्वक, स्व में अपनापन करने के लिये, पर को पर के रूप में
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