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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (३३ दिखता ही नहीं। अत: समस्या उपस्थित हो जाती है कि फिर ज्ञानस्वभावीआत्मा को खोजकर किसप्रकार निकाला जावे?
समाधान - इस समस्या का समाधान जिनवाणी में विस्तार पूर्वक उपलब्ध है। जीव द्रव्य की अन्तर्व्यवस्था को समझने में ही उस समस्या का समाधान है। अनादिकाल से सात या नवतत्त्वों के वेषों में अपना जीवतत्त्व छुपा हुआ है, लेकिन फिर भी, जिसने अपने स्वभाव को कभी नहीं छोड़ा है अपने जीवतत्त्व को अन्तर्दृष्टि से खोजकर प्रगट किया जा सकता है। क्योंकि अनादिकाल से छुपा होने पर भी, जीवतत्त्व अपनी स्वभाव सत्ता तो जैसी की तैसी ही अक्षुण्ण बनाये हुये है। अत: वह जीवतत्त्व तो अनेक वेषों से भी अप्रभावित रहते हुए जैसा का तैसा विद्यमान है, अत: उसको स्वात्मा के रूप में पहिचानकर प्राप्त करना कठिन कैसे हो सकता है? लेकिन उसको समझना तब ही सम्भव हो सकेगा जब हमको उसका असाधारण लक्षण ज्ञात हो। वह लक्षण भी ऐसा होना चाहिए जो उन पर्यायरूप वेषों में भी नहीं हो और स्वआत्मा से वह समय-मात्र के लिए भी भिन्न नहीं हो।
इसप्रकार इन पर्यायरूप वेषों में छुपी हुई आत्मज्योति को अर्थात् जिसको स्व जीवतत्त्व के रूप में सम्बोधित किया गया, उसे पहिचानने के लिए भी उपरोक्त ज्ञान ही एकमात्र असाधारण लक्षण है, लेकिन इस ज्ञानलक्षण के प्रयोग में विवेकपूर्वक विशेष सतर्कता एवं सावधानी की आवश्यकता है। ___छह प्रकार के अन्य द्रव्यों में से अपने जीवद्रव्य को पहिचानना सरल है, क्योंकि सबकी सत्ता ही अलग-अलग है। जिनका अस्तित्व ही भिन्न है, उनमें से अपने को अलग छांट लेना कठिन कैसे हो सकता है? लेकिन मेरी सत्ता भिन्न होने पर भी असंख्यात प्रदेशों का समुदायरूप द्रव्य एक होकर भी अनेक रूप परिणमता हुआ हमें दिखता है; ऐसे द्रव्य में भी द्रव्य से पर्याय का भेद करना असंभव ही लगता है । इसीकारण
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