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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( २९ स्थापन कर, उनसे उपेक्षित बुद्धिकर , स्व का आकर्षण बढ़ाकर, उपयोग को आत्मसन्मुख करना चाहिये। इसही को आधुनिक भाषा में प्रायोगिक पद्धति कहा जाता है।
इसप्रकार उपरोक्त दोनों पद्धतियों के माध्यम से “मैं ही एक ज्ञानस्वभावी आत्मा हूँ, और मेरा स्वभाव अर्थात् कार्य तो मात्र जानना ही है। ये क्रोधादि अनेक प्रकार के भाव तो मेरे ज्ञान में मात्र पर-ज्ञेय रूप में ही प्रतिभासित होते हैं" इसप्रकार ज्ञेय मात्र में परपने की स्थापना कर, वे सब ही उपेक्षा करने योग्य हैं, मात्र एक मेरा ज्ञानस्वभावी आत्मा ही मेरा मानने योग्य है, ऐसे अकाट्य निर्णय के एवं रुचि एवं परिणति की उग्रता के पृष्टबल से अपने उपयोग को सब ओर से समेटकर, आत्मसन्मुख कर आत्मदर्शन कर लेना चाहिये।
__ सैद्धान्तिक ज्ञान के द्वारा यथार्थ निर्णय प्राप्त किए बिना किसी भी प्रकार से अन्तर विचारधाराओं में प्रायोगिक परिणमन होना असंभव है।
द्रव्यश्रुत के अवलम्बन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय __ अनेक वस्तुओं के बीच में खोई हुई किसी भी वस्तु को पहिचानने के लिए सर्वप्रथम उस वस्तु का लक्षण जानना चाहिए। लक्षण भी ऐसा होना चाहिए कि वह लक्षण (चिन्ह) उस वस्तु (लक्ष्य) में ही मिले और उस वस्तु के अतिरिक्त अन्य किसी भी दूसरी वस्तु (अलक्ष्य) में न मिले। साथ ही वह लक्षण ऐसा होना चाहिए कि वह सर्वत्र एवं सर्वदा कभी भी उस वस्तु (लक्ष्य) से अलग न हो और वह सर्वविदित भी हो अर्थात् सहज रूप से ज्ञात हो। इसप्रकार वह स्पष्ट होकर बुद्धिगम्य हो सके। ___..हमको हमारा ज्ञानस्वभावी आत्मा खोजना है, तो सर्वप्रथम हमको उसका यथार्थ लक्षण जानना चाहिए। यथार्थ लक्षण जानने के साथ उसको खोजने का क्षेत्र भी निर्णीत होना चाहिए कि उसको कहाँ-कहाँ खोजना है। अत: सर्वप्रथम हमको द्रव्यश्रुत के आधार से उपरोक्त विषयों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
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