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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) ( २५ कैसे है? आचार्यश्री ने आत्मार्थी के लिए उपरोक्त पद्धति के द्वारा मार्ग, अत्यन्त सरल, संक्षिप्त एवं प्रशस्त कर दिया है, समस्त द्वादशांगवाणी का अध्ययन भी इसी खोजने के लिये करना है कि “मैं (आत्मा) ज्ञानस्वभावी कैसे हूँ?" अल्पज्ञान से हो अथवा विशेष ज्ञान से, ऐसा निर्णय कर लिया जावे कि “मैं (आत्मा) ज्ञानस्वभावी हूँ तो फल प्राप्ति रूप आत्मज्ञान तो दोनों को समान ही प्राप्त होगा? क्योंकि दोनों का लक्ष्य एक ही था। यही कारण है कि तिर्यंच को भी आत्मदर्शन हो जाता है । तात्पर्य यह है कि जिन तथ्यों के जानने से समस्त द्वादशांगवाणी में से यह निष्कर्ष निकलता हो कि “आत्मा तो एकमात्र ज्ञानस्वभावी है” मात्र ऐसा निष्कर्ष ही मोक्षमार्ग के लिए प्रयोजनभूत है। इस को मुख्य रखकर आत्मार्थी जिनवाणी के अध्ययन, अध्यापन, श्रवण, चिन्तन, मनन तथा सत्समागम आदि के द्वारा एकमात्र ऐसा निर्णय करने में संलग्न रहता है।
आगमज्ञान की महत्ता इसलिए उपरोक्त विषय का सर्वप्रथम सैद्धान्तिक ज्ञान अत्यन्त स्पष्ट एवं यथार्थ होना चाहिए। उपरोक्त गाथा १४४ की टीका प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम आचार्यश्री ने भी इस ही कारण “प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभाव आत्मा का निश्चय” करने का निर्देश किया है। अपने कल्याण के उद्देश्य से रुचिपूर्वक सत्समागम द्वारा द्रव्यश्रुत के अध्ययन, चिन्तन, मनन करने से ही ऐसा निर्णय प्राप्त किया जा सकता है; अत: आत्मार्थी का सर्वप्रथम कर्तव्य द्रव्यश्रुत का अध्ययन ही है। द्रव्यश्रुत के अध्ययन का महत्व बताने वाले आचार्यश्री कुन्दकुन्ददेव के प्रवचनसार ग्रन्थ के निम्न कथन गम्भीरतापूर्वक हृदयंगम करने योग्य हैं - गाथा ८६ का अर्थ - जिनशास्त्र द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों
को जानने वाले के नियम से मोहोपचय-क्षय हो जाता है, इसलिए शास्त्रों का सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिए।
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