Book Title: Shatrunjayatirthoddharprabandha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 12
________________ उपोद्घात पूर्णता को नहीं पहुँचता उसके विषय में 'यह तो जावड भावड कार्य है !' ऐसी लोकोक्ती इस देश में (गुजरात और काठियावाड में) प्रचलित है । " जावड शाह के इस उद्धार की मीति विक्रम संवत १०८ दी गई है । इस उद्धार के बाद के एक और उद्धार का भी इस माहात्म्य में उल्लेख है। यह संवत ४७७ में हुआ था । इस का कर्ता वल्लभी का राजा शिलादित्य था । जावड शाह के उद्धार बाद सौराष्ट्र और लाट आदि देशो में बौद्धधर्म का विशेष जोर बढने लगा । परवादियों के लिये दुर्जय ऐसे बौद्धाचार्यो ने इन देशों के राजाओं को अपने मतानुयायी बनाये और उनके द्वारा जैनधर्म को देशनिकाल दिलवाया । जैनों के जितने तीर्थ थे उन पर बौद्धाचार्यों ने अपना दखल जमाया और उन में अर्हतों की मूर्तियों की जगह बुद्धमूर्तियें स्थापित की। शत्रुंजय तीर्थ पर भी उन्हों ने वैसा ही वर्ताव किया। कुछ समय बाद चंद्रगच्छ में धनेश्वरसूरि नाम के एक तेजस्वी जैनाचार्य हुए। उन्होंने वल्लभी के राजा शिलादित्य को प्रतिबोध किया और उसे जैन बनाया । राजा ने बौद्धों के अत्याचारों से रुष्ट हो कर उन्हें देशनिकाल किया धनेश्वरसूरि ने यह शत्रुंजय महात्मय बनाया * । इस का श्रवण कर शिलादित्य ने शत्रुंजय का पुनरुद्धार करवाया और ऋषभदेव भगवान की नई मूर्ति प्रतिष्ठित की। इस प्रकार ऐतिहासिक - युग के इन दो उद्धारों का वर्णन इस माहात्म्य में हैं । इस माहात्म्य के सिवा, इस तीर्थ के दो कल्प भी मिलते हैं जिनमें का एक प्राकृत में है और दूसरा संस्कृत में । प्राकृत-कल्प के कर्ता तपागच्छ के आचार्य धर्मघोषसूरि हैं और संस्कृत के कर्ता * ऐतिहासिक विद्वान इस के कर्तृत्व विषय में शंकाशील हैं। वे इसे आधुनिक ad हैं। 'बृहट्टिनिका' के लेखक का भी यही मत है। हमने केवल माहात्म्य की दृष्टि से इस का उल्लेख किया है, इतिहास की दृष्टि से नहीं । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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