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ऐतिहासिक सार-भाग समरासाह के स्थापित किये हुए बिम्ब का पीछे से म्लेच्छों (मुसलमानों) ने फिर किसी समय मस्तक खंडित कर दिया । धर्मरत्नसूरि के पास बैठकर तोलासाह ने जिस अपने मनोरथ के सफल होने न होने का प्रश्न किया, वह इसी विषय का था । तोलासाह के समय तक किसीने गिरिराज का पुनरुद्धार नहीं किया था, इसलिये तीर्थपति की प्रतिमा वैसे खंडित रूप में ही पूजी जाती थी । वस्तुपाल के गुप्त रक्खे हुए पाषाणखंडो की बात संघ के नेताओं में पूर्वज परंपरा से कर्णोपकर्ण चली आती थी और समरासाह ने तो नया ही पाषाणखंड मंगवाकर उसकी मूर्ति बनवाई थी, अतएव वस्तुपाल के रक्षित पाषाणखंड अभी तक भूमिगृह में वैसे ही प्रस्थापित होने चाहिये; इसलिये उन्हें निकालकर चतुर शिल्पियों द्वारा उनके बिम्ब बनाये जाय
और वर्तमान खंडित मूर्तियों की जगह स्थापित किये जाय तो अच्छा है; यह विचार कर तोलासाह ने धर्मरत्नसूरि से अपना यह विचार सफल होगा या नहीं, इस विषय का उपर्युक्त प्रश्न किया था ।
धर्मरत्नसूरि ने प्रश्न का फलाफल विचार कर तोलासाह से कहा कि-'हे सज्जन शिरोमणि ! तेरे चित्त रूप क्यारे में शत्रुजय के उद्धार स्वरूप जो मनोरथ का बीज बोया गया है, वह तेरे इस छोटे पुत्र से फलवाला होगा । और जिस तरह समरासाह के उद्धार में हमारे पूर्वजों-आचार्यों ने प्रतिष्ठा करने का लाभ प्राप्त किया था, वैसे तेरे पुत्रकर्मासाह के उद्धार में हमारे शिष्य प्राप्त करेंगे ।' तोलासाह सूरिजी का यह कथन सुनकर हर्ष और विषाद का एक साथ अनुभव करने लगा । हर्ष इसलिये था कि, अपने पुत्र के हाथ से यह महान कार्य
१४४९ में बनाये हुए गिरनार तीर्थ पर के श्रीविमलनाथप्रासाद की प्रशस्ति का है । यह प्रशस्ति आज उपलब्ध नहीं है । कोई ३५० वर्ष पहले बनी हुई 'बृहत्पोशालिक पट्टावलि' में इस प्रशस्ति का उल्लेख है तथा इसके बहुत से पद्य भी उल्लिखित हैं । उन्हीं पद्यसमूहों में यह ऊपर का पद्य भी सम्मिलित है । इसका पद्यांक ७२ वां है ।
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