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परिशिष्ट । है, वह हमें मान्य है । यह तीर्थ ८४ ही गच्छों का है । किसी एक का नहीं है । लिखा, कमलकलशा मुनि भावरत्न ने ।
४. देवानन्द गच्छ के हारीज शाखा के भट्टारक श्रीमहेश्वरसूरि लिखितं-यथा (बाकी ऊपर ही के अनुसार) ।
५. श्री पूर्णिमापक्षे अमरसुंदरसूरि लिखितं-(ऊपर मुताबिक ।)
६. पाटडियागच्छीय श्रीब्राह्मणगच्छनायक भट्टारक बुद्धिसागरसूरि लिखितं- (ऊपर मुताबिक)।
७. आंचलगच्छीय यतितिलकगणि और पंडित गणराजगणि लिखितं(ऊपर मुताबिक) ।
८. श्री वृद्धतपागच्छ पक्षे श्री विनयरत्नसूरि लिखितं ।
९. आगमपक्षे श्री धर्मरत्नसूरि की आज्ञा से उपाध्याय हर्षरत्न ने लिखा ।
१०. पूर्णिमागच्छ के आचार्य श्री ललितप्रभ की आज्ञा से वाचक वाछाक ने लिखा । यथा-शत्रुजय का मूल किला, मूल मंदिर और मूल प्रतिमा समस्त जैनों के लिये वन्दनीय और पूजनीय है । यह तीर्थ समग्र जैन समुदाय की एकत्र मालिकी का है । जो जो जिनप्रतिमा मानते, पूजते हैं, उन सब का इस तीर्थ पर एक सा हक्क और अधिकार है । शुभं भवतु । जैन संघस्य ।
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