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ऐतिहासिक सार-भाग पर, कहीं से घोडे पर, कहीं से रथ पर, कहीं से बेल पर, कहीं से पालखी पर और कहीं से ऊँट पर सवार होकर मनुष्यों के झुंड के झूड शत्रुजय पर आने लगे ।
रत्नासाह, विद्यामंडनसूरि के पास पहुंचा और हर्षपूर्वक नमस्कार तथा स्तवना कर गिरिराज की प्रतिष्ठा पर चलने के लिये संघ के सहित आमंत्रण किया । सूरिजी ने कहा, "हे महाभाग ! पहले तुमने जब चित्तोड पर पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ का अद्भुत मंदिर बनवाया था, तब भी तुमने हमको आमंत्रण दिया था, लेकिन किसी प्रतिबंध के कारण हम तब न आ सके और हमारे शिष्य विवेकमंडन ने उस की प्रतिष्ठा की थी । लेकिन शत्रुजय की यात्रा के लिये तो पहले ही से हमारा मन उत्कंठित हो रहा है और फिर जिसमें यह तुम्हारा प्रेमपूर्ण आमंत्रण हुआ, इसलिये अब तो हमारा आगमन हों, इसमें कहने की बात ही क्या है ?" यह कहकर, सौभाग्यरत्नसूरि आदि अपने विस्तृत शिष्य परिवार से परिवृत्त होकर सूरिजी रत्नासाह के साथ, शत्रुजय की ओर रवाना हुए । वहां का स्थानिक संघ भी सूरिजी के साथ हुआ । अन्यान्य संप्रदाय के भी सेंकडो ही आचार्य और हजारों ही साधुसाध्वीयों का समुदाय, विद्यामंडनसूरि के संघ में सम्मिलित हुआ और क्रमशः शत्रुजय पहुंचा । कर्मासाह बहुत दूर तक सूरिजी के सन्मुख आया और बडी धामधूम से प्रवेशोत्सव कर उनका स्वागत किया । गिरिराज की तलहटी में जाकर सबने वासस्थान बनाया । अन्यान्य देश-प्रदेशों से भी अगणित मनुष्य इसी तरह वहां पर पहुंचे । लाखों मनुष्यों के कारण शत्रुजय की विस्तृत अधोभूमि भी संकुचित होती हुई मालूम देने लगी । लेकिन ज्यों ज्यों जनसमूह की वृद्धि होती जाती थी, त्यों त्यों कर्मासाह का उदार हृदय विस्तृत होता जाता था । आये हुए उन सब संघजनों को खान, पान, मकान, वस्त्र, सन्मान और दान दे देकर शक्तिमान कर्मासाह ने अपनी उत्तम संघभक्ति प्रकट की ।
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