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ऐतिहासिक सार-भाग दरिद्र से लेकर महान श्रीमन्त तक के सभी संघजनों की उसने एक सी भक्ति की । किसीको, किसी बात की न्यूनता न रहने दी । । प्रतिष्ठा महोत्सव में, सब अधिकारी अपने अपने अधिकारानुसार प्रतिष्ठा विधियां करने लगे । वैद्यों, वृद्धों और भीलों आदिकों को पूछ पूछकर सब प्रकार की वनस्पतियें, अगणित द्रव्य व्यय कर, भिन्न भिन्न स्थानों में से ढूंढ ढूंढ मंगवाई । श्री विनयमंडन पाठक की सर्वावसर सावधानता और सर्वकार्यकुशलता देखकर, प्रतिष्ठाविधि के कुलकार्यों का मुख्य अधिकार, सभी आचार्य और प्रमुख श्रावक एकत्र होकर, उन्हें समर्पित किया । बाद में, गुरुमहाराज के वचन से अपने कुलगुरु आदिकों की यथेष्ट दान द्वारा सम्यग् उपासना कर और सबकी अनुमति पाकर कर्मासाह अपने विधिकृत्य में प्रविष्ट हुआ । जब जब पाठकजी ने साह से द्रव्य व्यय करने को कहा तब तब सौ की जगह हजार देनेवाले उस उदार पुरुष ने बडी उदारतापूर्वक धन वितीर्ण किया । कोई भी मनुष्य उस समय वहाँ पर ऐसा नहीं था, जो कर्मासाह के प्रति नाराज या उदासीन हों । याचक लोकों को इच्छित से भी अधिक दान देकर उनका दारिद्र्य नष्ट किया । जो याचक अपने मन में जितना दान मांगना सोचता था, कर्मासाह के मुख की प्रसन्नता देखकर वह मुंह से उससे भी अधिक मांगता था और साह उसे मांगे हुए से भी अधिक प्रदान करता था; इसलिये उसका जो दान था वह 'वचोऽतिग' था । स्थान स्थान पर अनेक मंडप बनाये गये थे, जिनमें बहुमूल्य गालीचे, चंद्रोए और मुक्ताफल के गुच्छक लगे हुए थे । लोकों को ऐसा आभास हो रहा था कि, सारा ही जगत महोत्सवमय हो रहा है । आनंद और कौतुक के कारण मनुष्यों को दिन तो एक क्षण के जैसा मालूम होता था । जलयात्रा के दिन जो महोत्सव कर्मासाह ने किये थे, उन्हें देखकर लोक शास्त्रवर्णित भरतादिकों के महोत्सवों की कल्पना करने लगे थे ।
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