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ऐतिहासिक सार-भाग __ प्रतिष्ठा के मुहूर्तवाले दिन, स्नात्र प्रमुख सब विधि के हो जाने पर, जब लगसमय प्राप्त हुआ तब, सर्वत्र मंगल ध्वनि होने लगी । सब मनुष्य विकथा वगैरह का त्याग कर प्रसन्न मनवाले हुए । श्राद्धगण में भक्ति
का अपूर्व उल्लास फैलने लगा । विकसित वदन और प्रफुल्लित नयन वाली स्त्रियें मंगलगीत गाने लगी । खूब जोर से वाजिंत्र बजने लगे । हजारों भावुक लोग आनंद और भक्ति के वश होकर नृत्य करने लगे । सब मनुष्य एक ही दिशा में एक ही वस्तु तरफ निश्चल नेत्र से देखने लगे । अनेक लोग हाथ में धूपदान लेकर धूप ऊडाने लगे । कुमकुम और कर्पूर का मेघ बरसाने लगे । बंदीजन अविश्रान्त रूप से बिरुदावली बोलने लगे । ऐसे मंगलमय समय में, भगवन्मूर्ति का जब दिव्य स्वरूप दिखाई देने लगा, तब कर्मासाह की प्रार्थना से और जैन प्रजा की कल्याणाकांक्षा से, राग-द्वेष विमुक्त होकर श्रीविद्यामंडनसूरि ने समग्र सूरिवरों की अनुमति पाकर, शत्रुजयतीर्थपति श्री आदिनाथ भगवान की मंगलकर प्रतिष्ठा की । उनके और और शिष्यों ने अन्य जो सब मूर्तियें थी, उनकी प्रतिष्ठा की । विद्यामंडनसूरि बडे नम्र और लघुभाव को धारण करनेवाले थे, इसलिये ऐसा महान कार्य करने पर भी उन्होंने कहीं पर अपना नाम नहीं खुदवाया* । प्रायः उनके बनाये हुए जितने स्तवन हैं, उनमें भी उन्होंने अपना नाम नहीं लिखा ।
किसी भी मनुष्य को उस कल्याणप्रद समय में कष्ट का लेशमात्र भी अनुभव न हुआ । अपने कार्य में कृतकृत्य हो जाने से कर्मासाह के आनंद का तो कहना ही क्या है, परन्तु उस समय औरों के चित्त में भी आनंद का आवेश नहीं समाने लगा । केवल लोक ही कर्मासाह को इस कार्य करने से धन्य नहीं समझने लगे, किन्तु स्वयं वह आप भी अपने को धन्य मानने लगा । उस समय भगवन्मूर्ति को, उसकी
___* प्राचीन काल से यह प्रथा चली आ रही है कि, जो आचार्य जिस प्रतिमा की प्रतिष्ठा करता है, उस पर उसका नाम लिखा जाता है ।
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