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ऐतिहासिक सार-भाग प्रतिष्ठा करनेवाले विद्यामंडनसूरि को और तीर्थोद्धारक पुण्यप्रभावक कर्मासाह को-तीनों को एक ही साथ सब लोक पुष्प-पुंजों और अक्षत-समूहों से बधाने लगे । हजारों मनुष्य सर्व प्रकार के आभूषणों से कर्मासाह का न्युछन कर याचकों को देने लगे । मंदिर के शिखर पर सुन्ने ही के कलश और सुन्ने ही का ध्वजादंड, जिसमें बहुत से मणि जडे हुए थे, स्थापित किया गया । बाद में, सूरिवर ने साह के ललाटतल पर अपने हाथ से, विजयतिलक की तरह, संघाधिपत्य का तिलक किया और इन्द्रमाला पहनाई । मंदिर में निरंतर काम में आने लायक आरती, मंगलदीपक, छत्र, चामर, चंद्रोए, कलश और रथ आदि सुन्ने-चांदी की सब चीजें अनेक संख्या में भेट की । कुछ गांव भी तीर्थ के नाम पर चढाये । सूर्योदय से लेकर सायंकाल तक कर्मासाह का भोजनगृह सतत खुल्ला रहता था । जैन-अजैन कोई भी मनुष्य के लिये किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं था । पैर पैर पर साह ने क्या याचक और क्या अयाचक सबका सत्कार किया । सेंकडों ही हाथी, घोडे और रथ, सुवर्णाभरणों से भूषित कर कर अर्थिजनों को दे दिये । ज्यों ज्यों याचक गण उसके सामने याचना करते थे, त्यों त्यों उसका चित्त प्रसन्न होता जाता था । कभी किसीने उसके वदन, नयन और वचन में कोई तरह का विकारभाव न देखा । अधिक क्या उस समय कोई ऐसा याचक न था, जिसने साधु कर्मा के पास याचना न की हो और पुनः ऐसा भी कोई याचक न था, जिसने पीछे से कर्म (देव) के आगे याचना की हों - अर्थात् कर्मासाह ने कुल याचकों की इच्छा पूर्ण कर देने से फिर किसीने अपने नसीब को नहीं याद किया । - तदनन्तर, जितने सूत्रधार (कारीगर) थे, उन सबको सुवर्ण का यज्ञोपवित, सुवर्ण मुद्रा, बाजुबन्ध, कुण्डल और कंकण आदि बहुमूल्य आभरण तथा उत्तम वस्त्र देकर सत्कृत किये । अपने जितने साधर्मिक बंधु थे, उनका भी यथायोग्य धन, वस्त्र, अशन, पान, वाहन और प्रिय
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