Book Title: Shatrunjayatirthoddharprabandha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 61
________________ ५८ ऐतिहासिक सार - भाग कारीगरों ने थोडे ही काल में अद्भुत और उन्नत मंदिर तैयार किया । इस प्रकार जब सब प्रतिमायें लगभग तैयार हो गई और मंदिर भी पूर्ण बन चूका, तब शास्त्रज्ञाता विद्वानों ने प्रतिष्ठा के मुहूर्त निर्णय करना शुरू किया । इसके लिये कर्मासाह ने दूर दूर से, आमंत्रण कर कर, ज्ञान और विज्ञान के ज्ञाता ऐसे अनेक मुनि, अनेक वाचनाचार्य, अनेक पंडित, अनेक पाठक, अनेक आचार्य, अनेक गणि, अनेक देवाराधक और निमित्त शास्त्र के पारंगत ऐसे अनेक ज्योतिषी बुलाये । उन सब ने एकत्र होकर अपनी कुशाग्र बुद्धि द्वारा, सूक्ष्म विवेचनापूर्वक प्रतिष्ठा के शुभ और मंगलमय दिन का निर्णय किया । फिर कर्मासाह को वह दिन बताया गया और सभी ने शुभाशीर्वाद देकर कहा कि, "हे तीर्थोद्धारक महापुरुष ! संवत् १५८७ के वैशाख वदि (गुजरात की गणना से चैत्र वदि) ६, रविवार और श्रवण नक्षत्र के दिन जिनराज की मूर्ति की प्रतिष्ठा का सर्वोत्तम मुहूर्त है, जो तुम्हारे उदय के लिये हो ।" कर्मासाह ने, उनके इस वाक्य को हर्षपूर्वक अपने मस्तक पर चढाया और यथायोग्य उन सबका पूजन - सत्कार किया । मुहूर्त का निर्णय हो जाने पर कुंकुम पत्रिकायें लिख लिखकर पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण- चारों दिशाओं के जैन संघों को इस प्रतिष्ठा पर आने के लिये आमंत्रण दिये गये । आचार्य श्रीविद्यामंडनसूरि को आमंत्रण करने के लिये साहने अपने बडे भाई रत्नासाह को भेजा । कुंकुम पत्रिकायें पहुंचते ही चारों तरफ से, बडी बडी दूर से संघ आने लगे । अंग, बंग, कलिंग, काश्मीर, जालंधर, मालव... लाट, सौराष्ट्र, गुजरात, मगध, मारवाड और मेवाड आदि कोई भी देश ऐसा न रहा कि जहां पर कर्मासाह ने आमंत्रण न भेजा हो अथवा बिना आमंत्रण के भी जहां के मनुष्य उस समय न आने लगे हों । कहीं से हाथी प्रतिष्ठामुहूर्त की लग्नकुंडली राजावलीकोष्टक के अन्त में दी हुई है । X Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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