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__ ऐतिहासिक सार-भाग चला । अपने सारे समुदाय के साथ शत्रुजय की जड में-आदिपुर पद्या (तलहटी) में जाकर वास स्थान बनाया ।
इस समय सौराष्ट्र का सूबा मयादखान (गुझाहिदखान) था । वह कर्मासाह के इस कार्य से दिल में बडा जलता था, परंतु अपने मालिक (बहादुरशाह) की आज्ञा होने से कुछ नहीं कर सकता था । गूर्जर वंश के रविराज और नृसिंह ने कर्मासाह को अपने कार्य में बहुत साहाय्य दिया ।
खंभायत से विनयमंडन पाठक भी साधु और साध्वी का बहुत सा परिवार लेकर सिद्धाचल की यात्रा के उद्देश से कुछ समय बाद वहां पर आ पहुंचे । गुरुमहाराज के आगमन से कर्मासाह को बडा आनंद हुआ और अपने कार्य में दुगुना उत्साह हो आया । पाठकवर ने समरा आदि गोष्ठिकों को बुलाकर महामात्य वस्तुपाल के लाये हुए मम्माणी खान के दो पाषाणखंड जो भूमिगृह में गुप्त रूप से रक्खे हुए थे, मांगे । गोष्ठिकों के दिल को खुश और वश करने के लिये कर्मासाह ने गुरु महाराज के कथन से उनको इच्छित से भी अधिक धन देकर वे दोनों पाषाणखंड लिये और मूर्ति बनाने का प्रारंभ किया । अपने अन्यान्य कौटुम्बिकों के कल्याणार्थ कुछ प्रतिमायें बनवाने के लिये और भी कितने ही पाषाणखंड, जो पहले के पर्वत पर पडे हुए थे, लिये । सूत्रधारों (कारीगरों) को निर्माण कार्य में योग्य शिक्षा
___* टिप्पणी में लिखा है कि- आदिपुर पद्या (तलहटी) में जो कर्मासाह ने वासस्थान रक्खा, उसका कारण सूत्रधारों (कारीगरों) को ऊपर जाने-आने में सुविधा रहे, इसलिये था । बाद में प्रतिष्ठा के समय जब बहुत लोग इकट्ठा हुए, तब वहां से स्थान ऊठाकर पालीताणा में रक्खा था । क्योंकि वहां पानी आदि की तंगाईस पड़ने लगी थी ।
१. लावण्यसमय की प्रशस्ति में (देखो, श्लोक-२७) रविराज (या रवा) और नृसिंह-इन दोनों को मयादखान (मुझाहिदखान) के मंत्री (प्रधान) बतलाये हैं । डॉ. बुल्हर के कथनानुसार ये जैन थे । (देखो, एपिग्राफिआ इन्डिका प्रथम पुस्तक)
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