Book Title: Shatrunjayatirthoddharprabandha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 58
________________ ५५ ऐतिहासिक सार-भाग कर्तव्य का पालन कर लेंगे । शुभकार्य में कौन मनुष्य उपेक्षा करता है ?" मुनि-उचित इस प्रकार के संभाषण को सुनकर व्यंगविज्ञ कर्मासाह ने पाठक के आगमन की इच्छा को जान लिया और फिर से उनको नमस्कार कर वहां से रवाना हुआ । पांच छ ही दिन में साह वहां पहुंचा, जहां से शत्रुजय गिरि के दर्शन हो सकते थे । गिरिवर के दृष्टिगोचर होते ही, जिस तरह मेघ के दर्शन से मोर और चन्द्र के दर्शन से चकोर आनंदित होता है, वैसे साह भी आनंदपूर्ण हो गया । वहीं से उसने सुवर्ण और रजत के पुष्पों से तथा श्रीफलादि फलों से सिद्धाचल को बधाया । याचकों को दान देकर संतुष्ट किया । गिरिवर को भावपूर्वक नमस्कार कर फिर इस प्रकार स्तुति करने लगा, "हे शैलेन्द्र ! इच्छित देनेवाले कल्पवृक्ष की समान बहुत काल से तेरे दर्शन किये हैं । तेरा दर्शन और स्पर्शन दोनों ही प्राणीयों के पाप का नाश करनेवाले हैं । ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के सुखों के देनेवाले तेरे दर्शन किये बाद स्वर्गादिकों में भी मेरा संकल्प नहीं है । स्वर्गादि सुखों की श्रेणि के दाता और दुःख तथा दुर्गति के लिये अर्गला समान है गिरीन्द्र ! चिरकाल तक जयवान रहो ! तूं साक्षात पुण्य का परम मंदिर है । जिनके लिये हजारों मनुष्य असंख्य कष्ट सहन करते हैं, वे चिंतामणि आदि चीजें तेरा कभी आश्रय ही नहीं छोडती हैं । तेरे एक एक प्रदेश पर अनंत आत्मा सिद्ध हुए हैं इसलिये जगत में तेरे जैसा और कोई पुण्यक्षेत्र नहीं है । तेरे ऊपर जिनप्रतिमा हों अथवा नहीं, तू अकेला ही अपने दर्शन और स्पर्शन द्वारा लोगों के पाप का नाश करता है । सीमंधर तीर्थंकर जैसे जो भारतीय जनों की प्रशंसा करते हैं, उसमें तुझे छोडकर और कोई कारण नहीं है ।" इस प्रकार की स्तवना कर, अंजलि जोडकर पुनर्नमस्कार किया और फिर वहां से आगे Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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