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ऐतिहासिक सार-भाग साधु मिलते थे, उनके दर्शन-वंदन कर वस्त्र-पात्रादि दान देता हुआ, जितने दरिद्रलोक दृष्टिगोचर होते थे, उनको यथायोग्य द्रव्य की सहायता पहुंचाता हुआ और चीडीमार-मच्छीमार आदि हिंसक मनुष्यों को उनके पापकर्म से मुक्त करता हुआ, शत्रुजयोद्धारक वह परम प्रभावक श्रावक स्तंभतीर्थ (खंभात) को पहुंचा।
स्तंभनतीर्थवासी जैन समुदाय ने बडे महोत्सवपूर्वक कर्मासाह का नगर प्रवेश कराया । स्तंभनक पार्श्वनाथ और सीमंधर तीर्थंकर के मंदिरों में दर्शन कर साह पौषधशाला (उपाश्रय) में गया । वहाँ पर श्री विनयमंडन पाठक बिराजमान थे, उनको बड़े हर्षपूर्वक वंदन कर सुखप्रश्नादि पूछे । बाद में साह कहने लगा कि, "हे सुगुरु ! आज मेरा दिन सफल है, जो आपके दर्शन का लाभ मिला । भगवन् ! पहले जो आपने मुझे जिस काम के करने की सूचना की थी, उसके करने की अब स्पष्ट आज्ञा दें । आप समस्त शास्त्र के ज्ञाता और सब योग्य क्रियाओं में सावधान हैं, इसलिये मुझे जो कर्तव्य और आचरणीय हो, उसका आदेश दीजिए । लोकों में साधारण वस्तु का उद्धार-कार्य भी पुण्य के लिये होना-माना गया है, तो फिर शत्रुजय जैसे पर्वत पर जिनेन्द्र जैसे परम पुरुष की पवित्र प्रतिमा के उद्धार का तो कहना ही क्या है ? वह तो महान अभ्युदय (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाला है । पूज्य ! आप ही का किया हुआ, यह उपदेश आपके सन्मुख मैं बोल रहा हूँ, इसलिये मेरी इस धृष्टता पर क्षमा करें ।" साह के इस प्रकार बोले रहने पर पाठक जरा मुस्कुराये, परंतु उत्तर कुछ नहीं दिया । बाद में उन्होंने यथोचित सारी सभा के योग्य धर्मोपदेश दिया, जिसे सुनकर सब ही खुश और उपकृत हुए । अन्त में कर्मासाह को पाठक ने कहा कि, "हे विधिज्ञ ! जो कुछ करना है, वह तो तुम सब जानते ही हो । हमारा तो केवल इतना ही कथन है कि, अपने कर्तव्य में शीघ्रता करो । अवसर आने पर हम भी अपने
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