Book Title: Shatrunjayatirthoddharprabandha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 45
________________ ऐतिहासिक सार - भाग कीर्त्या च वादेन जितो महीयान् द्विधा द्विजो यैरिह चित्रकूटे । जितत्रिकूटे नृपतेः समक्षमहोभिरह्नाय तुरङ्गसंख्यैः * ॥ ४२ एक दिन अवकाश पाकर लीलू सती के पति तोलासाह ने अपने छोटे बेटे कर्मासाह के समक्ष धर्मरत्नसूरि से भक्तिपूर्वक एक प्रश्न किया कि- 'हे भगवन् मैंने जो कार्य सोच रखा है, वह सफल होगा या नहीं, यह आप विचार कर मुझसे कहने की कृपा करें ।' आचार्य महाराज उसी समय एकाग्रचित्त होकर अपने ज्योतिषशास्त्र विषयक विशेष ज्ञान द्वारा उसके चिन्तितार्थ का स्वरूप और फलाफल सोचने लगे । बात यह थी कि, गुर्जर महामात्य वस्तुपाल एक समय शत्रुंजय पर स्नात्र महोत्सव कर रहे थे । उस समय वहां पर अनेक देशों के बहुत संघ आये हुए थे, इसलिये मंदिर में दर्शन और पूजन करनेवाले श्रावकों की बड़ी भारी भीड लगी हुई थी । भक्तलोग भगवान की पूजा करने के लिये एक दूसरे से आगे होना चाहते थे । अनेक मनुष्य सुवर्ण के बडे बडे कलशों में दूध और जल भरकर प्रभु की प्रतिमा पर अभिषेक कर रहे थे । मनुष्यों की इस दट्टी और पूजा करने की उत्कट धून मची हुई देखकर पूजारियों ने सोचा कि, किसीकी बेदरकारी या उत्सुकता के कारण कलश वगैरह का भगवत्प्रतिमा के किसी सूक्ष्म अवयव के साथ संघट्टन हो जाने से कहीं कुछ नुकसान न हो जायँ । इसलिये उन्होंने चारों तरफ मूर्ति को पुष्पों के ढेर से ढंक दी । मंत्री वस्तुपाल ने मंडप में बैठे बैठे यह सब देखा और सोचा कि यदि किसी कलशादि के कारण या कोई म्लेच्छों के हाथ जो ऐसी दुर्घटना हो जाय तो फिर इस महातीर्थ की क्या अवस्था हो ? भावि काल में होनेवाले अमंगल की आशंका अपने अन्त:करण में इस प्रकार आविर्भाव हुआ देखकर दीर्घदर्शी महामात्य ने उसी समय मम्माण की 1 * यह प्रशस्ति ( शिलालेख ) कहां पर थी ( या अभी तक है) इसका पता नहीं । ऐसी बहुत सी प्रशस्तियों के उल्लेख कई ऐतिहासिक लेखों में मिलते हैं, लेकिन वे प्रायः नष्ट हो गई हैं । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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