Book Title: Shatrunjayatirthoddharprabandha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 43
________________ ४० ऐतिहासिक सार-भाग वंशजो में से था । उसका पुत्र रामदेव हुआ । रामदेव का लक्ष्मसिंह या (लक्ष्मीसिंह) हुआ । उसका भुवनपाल और भुवनपाल का भोजराज पुत्र हुआ । भोजराज का पुत्र ठक्करसिंह, उसका खेता और नरसिंह हुआ । ये सब प्रतिष्ठित नर हुए । नरसिंह का पुत्र तोला हुआ, जिसकी सतियों में ललामभूत ऐसी लीलू नाम की प्रिय पत्नी थी । साधु तोला, महाराणा साङ्गा का परम मित्र था । महाराणा ने उसे अपना अमात्य बनाना चाहा था, परंतु उसने आदरपूर्वक उसका निषेध कर केवल श्रेष्ठी पद ही स्वीकार किया । वह बडा न्यायी, विनयी, दाता, ज्ञाता, मानी और धनी था । सहृदय और पूरा दयालु था । यश भी उसका बडे बडे लोकों में था । बहुत ही उदारचित्त का था । याचकों को हाथी, समसामयिक था । बंगाल के प्रख्यात लेखक और विश्वकोष के कर्ता श्रीयुत नागेन्द्रनाथ वसु प्राच्य विद्यार्णव का 'लखनउ की उत्पत्ति' नामक एक ऐतिहासिक लेख 'पाटलिपुत्र' के प्रथम भाग के कितनेक अंको में प्रगट हुआ है । इस लेख में, लेखकने आमराज आदि के विषय में अच्छा प्रकाश डाला है । एक जगह लिखा है कि - "जैन ग्रंथ के अनुसार आमराज के गुरु बप्पभट्टि ने ८१५ संवत् या सन् ८३८ में पंचानवे की अवस्था पर पञ्चत्व पाया था । ऐसी स्थिति में ८०० संवत् या सन् ७४६ ई. से सन् ८३८ ई. तक बप्पभट्टि के आविर्भाव का समय मानना पडता है । प्रबन्धकोष के मत से ८५१ संवत् या सन् ७९५ ई. में आमराज की ही प्रार्थना पर बप्पभट्टि ने सूरिपद पाया था । आमराज ने वृद्ध वय में स्तम्भनतीर्थ, गिरनार, प्रभास प्रभृति नाना तीर्थ घूम और ८९० संवत् या सन् ८३४ ई. में मगधतीर्थ पहुंच प्राण छोडे । इसलिए मालूम होता है कि, सन् ७९५ से ८३४ ई. तक आमराज विद्यमान रहे । उधर गौड के पालराज वंश का इतिहास देखने से समझते हैं कि गौडाधिपति धर्मपाल ने सन् ७९५ से ८३४ ई. तक राजत्व चलाया था । ('बङ्गेर-जातीय इतिहास' के राजन्य कांड का २१६ वा पृष्ठ देखना चाहिए ।) इसलिए देखते हैं कि पालवंश के प्रकृत प्रतिष्ठाता महाराज धर्मपाल और कान्यकुब्जपति आमराज समसामयिक रहे ।" - पाटलिपुत्र, माघ शुक्ल-१, सं. १९७१ । ____ * लावण्यसमयवाली प्रशस्ति (पद्य-८-९) में लिखा है कि-आमराज की स्त्रियों में एक कोई व्यवपारी पुत्री थी । उसकी कुक्षिसे जो पुत्र उत्पन्न हुआ, उसका गोत्र राजकोष्ठागार (राजभांडागारिक) कहलाया । सारणदेव उसीके गोत्र में हुआ । १. प्रशस्त्यनुसार, इसका दूसरा नाम 'तारादे' था । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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