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ऐतिहासिक सार - भाग
ही अल्प है ) ऐतिहासिक सार भाग का सरल भावार्थ यहां पर दिया जाता है ।
महान् तपागच्छ के रत्नाकरपक्ष की भृगुकच्छीय शाखा में पहले अनेक आचार्य हो गये हैं । उनमें विजयरत्नसूरि नामके एक प्रतिष्ठित आचार्य हुए, जिन्होंने अपनी प्रखर विद्वत्ता से विद्वानों में सर्वत्र विजयपताका प्राप्त की थी । उनके धर्मरत्नसूरि नामके शिष्य हुए । जो बडे क्रियावान, विद्यावान और प्रतापी थे । सुविहितजन निरंतर उनकी सेवा किया करते थे । उनका निर्मल यश सर्वत्र फैला हुआ था । बचपन ही में उन्हें लक्ष्मीमंत्र सिद्ध हो गया था । कई राजेमहाराजे उनके पगों में अपना मस्तक नमाते थे । अनेक अच्छे कवि उनकी स्तवना करते थे । उन सूरिवर्य के अनेक अच्छे अच्छे शिष्य थे, जिनमें विद्यामंडन और विनयमंडन ये दो प्रधान थे । इनमें पहले को सूरिजी ने आचार्यपद दिया था और दूसरे को उपाध्यायपद ।
एक समय धर्मरत्नसूर अपने शिष्यों के साथ संघपति धनराज की प्रार्थना से, आबू वगैरह तीर्थों की यात्रा के लिये उसके संघ में चले | अनेक नगरों और गांवों में, संघ के साथ बड़े भारी समारोह से प्रवेश करते हुए क्रमसे मेदपाट (मेवाड ) देश में पहुंचे । भारत भामिनी के भूषण समान इस मेदपाट की क्या प्रशंसा की जाय ? पैर पैर पर जहां सरोवर, नदियाँ, वन और क्रीडापर्वत विद्यमान हैं । धन और धान से जहां के शहर समृद्धिशाली बने हुए हैं। जहां न क्लेश का लेश है और न शत्रु का प्रवेश है । न दंड की भीति है और न
x 'गुरुगुणरत्नाकरकाव्य' के तीसरे सर्ग में (श्लोक-२० से २५ तक) दाक्षिणात्य सं. धनराज और नागराज नामक दो भाईयों का जिक्र है । वे दक्षिण में देवगिरि (दौलताबाद) के रहनेवाले थे । उन्होंने सिद्धाचलादि तीर्थों की यात्रा के लिये बडे बडे संघ निकाले थे और लाखों रुपये खर्च किये थे । संभव है कि यह धनराज वही हो समय एक की है ।
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