Book Title: Shatrunjayatirthoddharprabandha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 10
________________ उपोद्घात का बड़ा भारी हमला समुद्र द्वारा आया और सौराष्ट्र, लाट कच्छ वगैरह देशों को खूब लूटा। इन देशों की बहुत सी संपत्ति के साथ कितने ही बाल-बच्चों तथा स्त्री-पुरुषों को भी पकड कर वे अपने देश में ले गये । दुर्भाग्यवश जावड भी उन्हीं में पकडा गया । जावड बडा बुद्धिशाली और चतुर व्यापारी था इस लिये वह अपने कौशल से उन म्लेच्छों को प्रसन्न कर वहीं स्वतंत्र रूप से रहने लगा और व्यापार चलाने लगा। व्यापार में उसे थोड़े ही समय में बहुत द्रव्य प्राप्त हो गया। वह उस म्लेच्छ - भूमि में भी अपने स्वदेश की ही समान जैनधर्म का पालन करने लगा। वहाँ पर एक सुंदर जैनमंदिर भी उसने बनाया । जो कोई अपने देश का मनुष्य वहां पर चला आता था उसे जावड सर्वप्रकार की सहायता देता था । इस से बहुत सा जैनसमुदाय वहाँ पर एकत्र हो गया था । इसी समय कोई जैन मुनि उस नगर में जा पहुँचे। जावड ने उन का बडे हर्षपूर्वक सत्कार किया। प्रसंगवश मुनिमहाराज ने शत्रुंजयतीर्थ का हाल सुनाया और म्लेच्छों ने उस को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है इस लिये पुनरुद्धार करने की आवश्यकता बताई । जावड ने अपने सिर इस कार्य को लिया । एक महिने की तपश्चर्या कर चक्रेश्वरी देवी का आराधन किया। देवी ने प्रसन्न हो कर कहा - 'तक्षशिला नगरी में, जगन्मल्ल नामक राजा के पास जाकर, वहाँ के धर्मचक्र के अग्रभाग में रहा हुआ जो अर्हदबिम्ब है, उसे ले जाकर शत्रुंजय पर स्थापन कर ।' देवी के कथनानुसार जावड तक्षशिला में गया और राजा की आज्ञा पा कर धर्मचक्र में रही हुई ऋषभदेव तीर्थंकर की प्रतिमा को तीन प्रदक्षिणा देकर उठाई। महोत्सव के साथ उस प्रतिमा को अपने जन्म-स्थान मधुमती में लाया । जावड ने बहुत वर्षों पहले, म्लेच्छ देश में से बहुत से जहाज, माल भरकर चीन वगैरह देशों को भेजे थे वे समुद्र में घूमते फिरते इसी समय मधुमती नगर के किनारे आ लगे। ये जहाज माल बेच कर उस के Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only ७ www.jainelibrary.org

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