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आधुनिक वृत्तान्त अवश्य ही कुछ ठीक जान पडता है । प्रवाद यह है कि बादशाह अलाउद्दीन के समय में श्रावकों ने अपनी रक्षा के लिये यह कब्र बनवाई थी । एक मुसलमान फकीर की कब्र के कारण-जो की बहुत ही पूज्य समझा जाता था-बहुत संभव है कि मुसलमानों ने इस पवित्र तीर्थ पर उत्पात मचाना उचित न समझा हो । शुरू से यह स्थान श्रावकों के ही अधिकार में चला आता है ।"
"पर्वत की चोटी के दो भाग हैं । ये दोनों ही लगभग तीन सौ अस्सी अस्सी गज लम्बे हैं और सर्वत्र ही मन्दिरमय हो रहे हैं । मन्दिरों के समूह को टोंक कहते हैं । टोंक में एक मुख्य मंदिर और दूसरे अनेक छोटे छोटे मंदिर होते हैं । यहां की प्रत्येक टोंक एक एक मजबूत कोट से घिरी हुई है । एक एक कोट में कई कई दरवाजे हैं । इनमें से कई कोट बहुत ही बडे बडे हैं । उनकी बनावट बिलकुल किलों के ढंग की है । टोंक विस्तार में छोटी बडी हैं । अन्त की दशवीं टोंक सबसे बडी है । उसने पर्वत की चोटी का दूसरा हिस्सा सब का सब रोक रक्खा है ।" __ "पर्वत की चोटी के किसी भी स्थान में खडे होकर आप देखिए, हजारों मंदिरों का बडा ही सुन्दर, दिव्य और आश्चर्यजनक दृश्य दिखलाई देता है । इस समय दुनिया में शायद ही कोई पर्वत ऐसा होगा, जिस पर इतने सघन, अगणित और बहुमूल्य मंदिर बनवाये गये हों । मंदिरों का इसे एक शहर ही समझना चाहिए । पर्वत के बहिः प्रदेशों का सुदूर-व्यापी दृश्य भी यहां से बडा ही रमणीय दिखलाई देता है ।"
फार्बस साहब ‘रासमाला' में लिखते हैं कि - "शत्रुजय पर्वत के शिखर ऊपर से, पश्चिम दिशा की ओर देखते, जब आकाश निर्मल और दिन प्रकाशमान होता है तब, नेमिनाथ तीर्थंकर के कारण पवित्रता
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