Book Title: Shatrunjayatirthoddharprabandha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Shrutgyan Prasarak Sabha

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Page 37
________________ आधुनिक वृत्तान्त इस प्रबन्ध के दूसरे उल्लास के ८४ वें श्लोक का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि विवेकधीर गणि शास्त्रीय विद्याओं के तो पंडित थे ही, परंतु शिल्पविद्या में भी पूर्ण निपुण थे । शत्रुजय के उद्धारकार्य में कर्मासाह ने जिन हजारों शिल्पियों (कारीगरों) को नियुक्त किया था, उन सब को निर्माणकार्य में समुचित शिक्षा देनेवाले के स्थान पर, विवेकधीर गणि ही को, इनके गुरु (आचार्य)ने अध्यक्ष (इंजिनियर) नियत किया था ! इनके बडे गुरुभ्राता विवेकमंडन पाठक भी इस कार्य में सहकारी थे । पूर्वकाल में जैन विद्वान् कैसे विद्यावान् और सर्वकलाकुशल होते थे, इसका खयाल इस कथन से अच्छी तरह हो सकता है । जैनयतियों के लिये सावद्यकर्म के करने-कराने का यद्यपि जैनशास्त्र निषेध करते हैं तथापि संघ की शुभेच्छा और शान्ति के लिये कभी कभी उन्हें वैसे निषिद्ध कर्तव्यों के करने की भी शास्त्रकारों ने आपवादिकी आज्ञा दी है । वास्तुशास्त्र के कथनानुसार, यदि किसी देवमंदिर की रचना दोषयुक्त हो जाय तो उसका अनिष्ट फल बनानेवाले को, उसके पूजकों को, ग्रामवासियों को अथवा उससे भी अधिक सम्पूर्ण देशवासियों को भुगतना पडता है । इस आर्य शास्त्रानुज्ञा के कारण, संघ और राष्ट्र की भलाई के निमित्त, पं. विवेकधीर गणि को, शिल्पशास्त्र में उनकी अप्रतिम निपुणता देखकर, उनके धर्माचार्य ने, जैनधर्म के इस महान् तीर्थ के उद्धारकार्य में, निरीक्षक तया नियुक्त किये थे । आचार्यवर्य की इस योग्य नियुक्ति का और विवेकधीर गणि की सूक्ष्म निरीक्षणशक्ति का सुफल जैन प्रजा आज तक यथायोग्य भोग रही है । ___* वर्तमान में भी पाटन के तपागच्छ के वृद्ध यति श्रीहिमतविजयजी शिल्पशास्त्र के अद्वितीय ज्ञाता हैं । सारे राजपूताना में और गुजरात तथा काठियावाड में उनके जैसा कोई शिल्पज्ञ नहीं है । डॉ. हर्मन जेकोबी इनकी इस विषय की निपुणता देखकर बडे प्रसन्न हुए थे । खेद होता है कि इनके बाद इस विषय के उत्तम ज्ञाता का एक प्रकार से अभाव ही हो जाएगा । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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