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छक्खंडागमे संतकम्म
१४ ) भणदि
चत्तारि आणुपुवी खेत्तविवागा त्ति जिणवरुद्दिठ्ठा ।
णीचुच्चागोदाणं होदि णिबंधो दु अप्पाणे ।। ४ ।। चत्तारि आणुपुव्वीओ खेत्तणिबद्धाओ। कुदो ? पडिणियदखेत्तम्हि चेव तासि फलोवलंभादो । णीचुच्चागोदाणं पुण णिबंधो अप्पाणम्मि चेव, तेसिं फलस्स जीवे चेवुवलंभादो।
दाणंतराइ दाणे लाभे भोगे तहेव उवभोगे ।
गहणे होंति णिबद्धा विरियं जह केवलावरणं ।। ५ ।। एदाओ पंच वि पयडीओ जीवणिबद्धाओ चेव, घाइकम्मत्तादो। किंतु घाइज्जमाणजीवगुणजाणावणट्टमेसा गाहा परूविदा । दाणंतराइयं दाणविग्घयरं, लाहविग्घयरं, लाहंतराइयं, भोगविग्घयरं भोगंतराइयं, उपभोगविग्घयरं उवभोगंतराइयं । गहणसद्दो उवभीगग्गहणे भोगग्गहणे त्ति पादेक्कं संबंधेयव्वो । जहा केवलगागावरणीयं परूविदं अणंतदव्वेसु णिबद्धमिदि तहा विरियंतराइयं पि परूवेयव्वं, जीवादो पुधभूददव्वं अस्सिऊण विरियस्त पवुत्तिदंसणादो । एवमेत्य अणुयोगद्दारे एत्तियं चेव परूविदं, सेसअणंतत्थविसयउवदेसाभावादो।
एवं णिबंधणे त्ति समत्तमणुओगद्दारं
प्ररूपणा करने के लिये गाथासूत्र कहते हैं--
चार आनुपूर्वी प्रकृतियां क्षेत्रविपाकी हैं, ऐसा जिनेन्द्र देवके द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। नीच व ऊंच गोत्रोंका निबन्ध आत्मामें है ।। ४ ।।
चार आनुपूर्वी प्रकृतियां क्षेत्रनिबद्ध हैं, क्योंकि, प्रतिनियत क्षेत्रमें ही उनका फल पाया जाता है। परंतु नीच व ऊंच गोत्रका निबन्ध आत्मामें ही है, क्योंकि, उनका फल जीवमें ही पाया जाता है।
दानान्तराय दानके ग्रहण में, लाभान्तराय लाभके ग्रहणमें, भोगान्त राय भोगके ग्रहणमें, तथा उपभोगान्तराय उपभोगके ग्रहणमें निबद्ध हैं। वीर्यान्तराय केवलनाज्ञावरणके समान अनन्त द्रव्योंमें निबद्ध है ॥ ५ ॥
ये पांचों ही प्रकृतियां जीवनिबद्ध ही हैं, क्योंकि, वे घातिया कर्म हैं। किन्तु उनके द्वारा घाते जानेवाले जीवगुणोंका ज्ञापन कराने के लिये इस गाथाकी प्ररूपणा की गई है । दान में विघ्न करनेवाला दानान्तराय, लाभमें विघ्न करनेवाला लाभान्त राय, भोगमें विघ्न करनेवाला भोगान्तराय, और उपभोगमें विघ्न करनेवाला उपभोगान्तराय है। ग्रहण शब्दका अर्थ उपभोगग्रहण है, इस कारण इसका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध करना चाहिये। जिस प्रकार केवलज्ञानावरणीयकी अनन्त द्रव्योंमें निबद्धताकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार वीर्यान्तरायकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, जीवसे भिन्न द्रव्यका आश्रय करके वीर्यकी प्रवृत्ति देखी जाती है। इस प्रकार इस अनुयोगद्वारमें इतनी ही प्ररूपणा की गई है, क्योंकि, शेष अनन्त पदार्थविषयक निबन्धनके उपदेशका अभाव है।
इस प्रकार निबन्धन अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
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